Saturday 24 March 2018

130 दो मुक्तक !

डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा

1
बस फूलों की राहें पाना ऐसे थे अरमान नहीं ,
मिलकर रहना साथ बड़ा सुख इस सच से अनजान नहीं 
आज शिकायत ख़ुद से हमको हर कोशिश नाकाम हुई ;
ग़ैरों से अपनापन पाना इतना भी आसान नहीं । ।
                                2
       उर्वर धरती में बोया है बीज कभी तो सरसेगा ,
       कोई मधुरिम गीत कभी तो मन को उनके परसेगा ।
       अपना हो या किसी और का दर्द यही फ़ितरत उसकी ;
       बसे नयन में या बादल में पानी है तो बरसेगा । ।   

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Wednesday 7 March 2018

129 जीवन की संजीवनी !


डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा


दुर्गा काली मात को पूजे सकल समाज 
फिर क्यों सबला को मिले, मर्दानी का ताज ।1

नारी बन नारायणी ,उठ कर सोच विचार ।
स्वयं शक्ति ,तेजस्विनी,रच उज्ज्वल संसार ।2

कभी सुखद -सी चंद्रिका ,कभी सुनहरी धूप ,
कुदरत ने तुझको रचा देकर रूप –अनूप ।।3

कोमलता शालीनता ,गहने हैं ,ले मान ।
लेकिन कर प्रतिकार अब मत सहना अपमान ।।4


कठपुतली बन कर रहूँ ,कब तक तेरे साथ ,
डोरी रख ले थाम कुछ, दे मेरे भी हाथ ।।5

पग-पग पर मिलते यहाँ ,दुःशासन उद्दण्ड,
बैठे हैं धृतराष्ट्र क्या , लिये हाथ में दण्ड ।।6

जीवन की संजीवनी , आप करे संघर्ष ।
देख दशा, तेरी दिशा , शोक करें या हर्ष ।।7

पिंजरे की मैना चकित,क्या भरती परवाज़ ।
कदम-कदम पर गिद्ध हैं ,आँख गड़ाए बाज़ ।।8

पावनता पाई नहीं ,जन -मन का विश्वास ।
सीता को भी  राम  से , भेंट मिला वनवास ।।9

फूल कली से कह गए ,रखना इतना मान ।
बिन देखे होती रहे ,खुशबू से पहचान ।।10

शीश चुनरिया सीख की ,मन में मधुरिम गीत ।
बाबुल तेरी लाडली ,कभी न भूले रीत ।। 11

बिटिया को समझाइए ,सही-गलत पहचान ।
मानव के भी वेश में ,मिलते हैं शैतान ।। 12

छुपकर तितली ने पढ़े ,सभी सुमन के पत्र।
सोच–समझ उड़ना सखी , वन,उपवन ,सर्वत्र।। 13

देख-देखकर हो गए , डर,शंका निर्मूल ।
रंग-बिरंगी तितलियाँ ,उड़ें फूल से फूल ।। 14

मिली राह में ज़िंदगी ,बड़े दिनों के बाद ।
कुछ मुट्ठी में बंद सी , कुछ लगती आज़ाद ।। 15

दिवस अठारह तक चला ,द्वापर में संग्राम ।
कलियुग में क्यों कर भला,लेता नहीं विराम ।। 16

बैठीं नैना मूँद कर ,गांधारी किस चाह ।
सच्ची जीवन संगिनी ,सही सुझाए राह ।। 17

पोर-पोर पीड़ा बसी ,अभी रहे चुपचाप।
क्षमा कभी खुद को भला, कर पाएँगें आप ।। 18

राजनीति चौसर बिछा ,खेल रही है द्यूत ।
शकुनि दे रहे मंत्रणा ,प्रज्ञा हुई अछूत ।। 19

कैसे हम उनको कहें ,स्वयं धर्म का रूप ।
रखें प्रिया को दाँव क्या ,मर्यादा अनुरूप ।। 20

कान्हा तब तुमने रखी ,द्रुपद सुता की लाज ।
घर-घर हों वीरांगना , दुर्गा, लक्ष्मी आज ।। 21

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