Thursday, 20 December 2018
Friday, 26 October 2018
139-तुमसे उजियारा है !
तुमसे उजियारा है
साहित्य आत्मिक ऊर्जा का ऐसा पुंज है जो प्रकट
होकर सर्वथा मंगल का सृजन करता है | यह विविध धाराओं में प्रवाहित होता हुआ समस्त
मनोमालिन्य को मिटाकर सबको उद्भासित करने की सामर्थ्य रखता है | अब इस ऊर्जा के
बिंदु परस्पर संयोजित हों अथवा ऐसे ही छिन्न-भिन्न अवस्था में दबकर रह जाएँ यह
तत्कालीन परिवेश एवं परिस्थितियों पर निर्भर करता है | इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि
जिस प्रकार सृष्टि-प्रक्रिया में सुप्तावस्था में पड़े सृजन के बीज द्विध गति को
प्राप्त होते हैं ,कुछ समय की गति के साथ विनष्ट होकर मिट्टी से एकाकार हो जाते
हैं , कुछ अनुकूलन प्राप्त कर अंकुरित हो पल्लवित , पुष्पित हो जाते हैं | बस ऎसी
ही स्थिति सुप्त पड़े ऊर्जा-बिन्दुओं अथवा भाव-बीजों की है |
मेरी मनोभूमि में भी कुछ ऐसे ही सुप्त पड़े बीज
अंकुरित हुए | उ.प्र. के मेरठ जनपद की ‘नाथूराम पांडे’ की गली में पंजाबी परिवार
के साथ निवास ने पंजाबी लोकसंस्कृति से परिचय कराया , खिला-खिला मस्ती भरा जीवन |
यही कोई सात-आठ वर्ष की वयस रही होगी मेरी लेकिन माता जी ( पंजाबी परिवार की दादी
माँ ) के साथ रोज़ शाम को मंदिर में आरती में बैठना , सामने वाले घर में ‘सांझी’, ‘फुलैरा
दूज’ और ‘टप्पे’ आज भी जैसे चित्रांकित हैं मेरी स्मृतियों में | इनमें से ‘बागाँ
विच आया करो ..’ सुर, ताल , लय के साथ जस का तस विद्यमान रहा |
बिजनौर आगमन , अध्ययन , अध्यापन और उसके भी
कितने समयोपरांत पुनः लेखन में प्रवृत्त हुई तो दोहा , कुण्डलिया , हाइकु आदि
विधाओं के साथ एक छंद और उतरा , माँ शारदे की वंदना में लिखा –
‘माँ, रुत वासंती है / चरणों में हमको / ले लो
ये विनती है |
यहीं से इस यात्रा का शुभारंभ हुआ | मधुर , गेय
इस छंद के शिल्प आदि के विषय में अधिक जानकारी नहीं थी , अस्तु , वहीं गई जहाँ
मुझे अपनी ऎसी सभी समस्याओं का समाधान मिलता रहा है , आदरणीय भाई रामेश्वर काम्बोज
‘हिमांशु’ जी के पास | उनसे ही जाना कि ‘विशेषतः पंजाबी लोकगीत का ही एक प्रकार यह-
द्विकल में 12-10-12 मात्राओं के साथ तीन चरण वाला माहिया छंद है ,जिसका पहला-तीसरा
चरण तुकांत हो | यह पहले प्रायः पंजाबी में और अब हिन्दी एवं अन्य भाषाओं में भी
प्रचुरता से रचा जा रहा है |’ बृहत् हिन्दी कोष ने ‘माहिया’ का अर्थ प्रिय या
प्रियतम कहा तथा इसे ऐसा पंजाबी गान बताया जिसमें करुण या शृंगार रस की प्रधानता
रहती है | ‘हिन्दी साहित्य कोश’ की पारिभाषिक शब्दावली में भी इसे करुण अथवा शृंगार रस से और शृंगार में भी विरह पक्ष
की मार्मिक अनुभूति से आप्लावित पंजाब के प्रसिद्ध लोकगीत के रूप में ही परिभाषित
किया गया है |
उपरांत मेरा ‘माहिया छंद’ का विधिवत लेखन
प्रारम्भ हुआ | आ. काम्बोज जी एवं डॉ. हरदीप सन्धु जी के संयुक्त संपादन में
त्रिवेणी http://trivenni.blogspot.in/ पर 4 मई , 2012 को हरदीप जी के तथा 6 मई , 2012
को सर्वप्रथम मेरे माहिया प्रकाशित हुए | संपादक द्वय के सत्प्रयासों से आदरणीया
डॉ. सुधा गुप्ता सहित सशक्त रचनाकारों के प्रभावी माहिया छंद त्रिवेणी ब्लॉग पर
समय-समय पर प्रकाशित होते रहे | जिसकी परिणति आदरणीय रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ ,
डॉ. भावना कुँअर , डॉ. हरदीप सन्धु के सम्पादन एवं डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा के संयोजन
में प्रकाशित माहिया-संग्रह ‘पीर भरा दरिया’ के रूप में हुई | अनुपमा त्रिपाठी जी
ने डॉ. सुधा गुप्ता , डॉ. भावना एवं रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जी के साथ मेरे भी
माहिया को स्वर दिया जो यू-ट्यूब पर सुने जा सकते हैं |
‘पीर भरा दरिया’ के सम्पादकीय में ‘बालो-माहिया’
की किंवदंती सहित माहिया के शिल्प विधान पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है | सम्पादक
त्रय ने शृंगार के वियोग-संयोग को माहिया का अंगीरस मानते हुए भी अब अन्य रसों की
उपस्थिति को स्वीकार कर प्रकारांतर से माहिया की विषय-वस्तु को विशदता प्रदान की
है | किसी भी समाज में लोकगीत समय की प्रतिध्वनि
हैं | आज़ादी की लड़ाई में जन-जन की हुंकार बने गीत हों अथवा आर्यसमाज के सम्मेलनों
में समाज की कुरीतियों पर प्रहार करते गीत यहाँ तक कि घरों में उत्सवों पर महिलाओं
द्वारा गाये जाने वाले गीतों में भी तत्कालीन परिस्थितियाँ झलकती हैं | तदनुरूप प्रायः
प्रेमी-प्रेमिका के रूठने-मनाने, विरह-मिलन, चुहल से ओत-प्रोत माहिया ने भी
विस्तार पाया और ग़ज़ल की भाँति ही माहिया भी ‘विषय-बाध्यता’ की परिधि से बाहर निकल
आया | अनेक रचनाकारों ने आधुनिक संदर्भो को माहिया की विषय-वस्तु के रूप में चुन
प्रासंगिक रचनाधर्मिता का परिचय दिया |
‘तुमसे उजियारा है’ के माहिया भी जीवन के विविध
पक्षों को स्पर्श करते हैं | समय की , समाज की ध्वनि है इनमें | जैसे-जैसे ,जो भी
घटित होता रहा मेरी लेखनी का विषय बनता रहा और वह माहिया त्रिवेणी अथवा अन्य पत्र-पत्रिकाओं
में प्रकाशित भी होते रहे , किसी न किसी शीर्षक के साथ | इस प्रकार 21 शीर्षकों
में रचित माहिया पुस्तक के रूप में आबद्ध होकर आपके सम्मुख हैं | कुछ इनके विषय
में कहना चाहूँगी –
प्रारम्भ में ‘तुमसे उजियारा है’ , ‘सोने सी
निखर गई’ , ‘है रात नशीली सी’ और ‘खोलो वातायन’ के माहिया प्रथम दृष्टया प्रेमपरक मधुर
भावनाओं से भरे माहिया ही प्रतीत होते हैं , हैं भी ,उनमें मिलन का आह्लाद है तो
विरह की वेदना भी है | परन्तु कई स्थलों पर ये माहिया लौकिक से अलौकिक की यात्रा
तय करते हैं यथा-
‘सोने सी निखर गई / नाम लिया तेरा / सिमटी , फिर
बिखर गई’ में विरह की पीड़ा में सोने सा निखर कर निकलना और नाम स्मरण मात्र से सयंम
खो देने का मुग्ध भाव है | तो दूसरी ओर खुद को खोकर ही प्रिय को पाना आत्मा-परमात्मा
के एकीभाव को संकेतित करता है –
कैसी ये माया है / खोया है खुद को / फिर तुझको
पाया है |
दूसरी ओर ‘हक हमको पाने हैं / इतना याद रहे /
/कुछ फ़र्ज़ निभाने हैं ‘ और ‘ टुकड़ों का मोल नहीं / माँ-बाबा खातिर / दो मीठे बोल
नहीं |, , नैनों में सपने हैं / दुर्दिन कह जाएँ / कब ? कितने ? अपने हैं |’ जैसे
माहिया कर्तव्यबोध जाग्रत करते तथा जीवन के कटुसत्य को उद्घाटित करते माहिया हैं |
‘कल भीग गए नैना / चाहा था उड़ना / खामोश हुई
मैना” में समय के दायरों , प्रतिबंधो से बाहर निकलती स्त्री की चुनौतियों और पीड़ाओं
को कहा गया है | नितप्रति समाचारों में सुनाई पड़ती ऎसी घटनाओं की परिणति है यह
माहिया | ऐसे ही कवि की कविताओं और कठोर शिलाओं से फूटी जल-धाराओं को मेरी दृष्टि
से देखिए-
जग दरिया लाख कहे / जान गई मैं तो / पर्वत की
पीर बहे’ .... माहिया संवेदनशील हृदय की काव्यात्मक अभिव्यक्ति के साथ पर्यावरण के प्रति हमारी
असंवेदनशीलता की ओर संकेत करता है | ऐसा लगता है कविता में समाज की पीड़ा और नदी के
रूप में तथाकथित विकास के नाम पर अनवरत बारूदी विस्फोट और चोट झेलते पर्वतों की
पीड़ा ही उमड़-उमड़ कर बह रही हो |
‘ये ,रुत वासंती है’ शीर्षक के माहिया भक्ति भाव
से परिपूर्ण माँ सरस्वती और कृष्ण के प्रति श्रद्धा भाव भरे माहिया है | माँ शारदे
सदैव चरणों में स्थान दें , न केवल मेरे अपितु समस्त प्राणियों पर माँ का दया भाव
हो – ‘सुख-दुःख में साथ रहे / सबके शीश सदा / माँ तेरा हाथ रहे |’ कान्हा जी का
अनुपम चित्र-चरित्र कहते माहिया में मुझे प्रिय है – जादूगर कैसे हो / जो जिस भाव
भजे / उसको तुम वैसे हो’ निःसंदेह इसे रचते समय गोपिकावल्लभ योगीराज श्रीकृष्ण के
विविध चरित्र मेरी लेखनी के हृदय में विद्यमान रहे | प्रेम से स्मरण करते भक्तों
के लिए भक्त-वत्सल कृष्ण और द्वेषभाव से स्मरण करते दुराचारियों कंस आदि के प्रति
उनके विनाशक कृष्ण | ‘जल दीप उजाला हो’ में प्रभु से निर्धन का धन बनने का निवेदन
और हर मन का दीप जल उठे ऐसी दीपावली की प्रार्थना है –
सुनते ना, कित गुम हो / अर्ज़ यही भगवन / निर्धन
के धन तुम हो |
दिन-रैन उजाला हो / दीप यहाँ मन का / मिल सबने
बाला हो |
‘पाहन पर फूल खिले’ विविध भावभरे माहिया हैं |
‘जीवन तो होम किया / पर जिद ने मेरी / पत्थर को मोम किया’ से शुरू इस धारा में
किसी भी कार्य को सिद्ध करने के लिए एक धुन , एक जूनून का सन्देश देते इस माहिया
के साथ पत्थर को विषय बनाकर रचे कई माहिया हैं | विषय से इतर इस शीर्षक के दो
माहिया उस वक्त घटी एक घटना की ओर संकेत करते हैं – मिड डे मील खाकर लगभग चालीस
बच्चों के प्राण संकट में आ गए , सारा दिन वही समाचार देखती रही और ईश्वर से उनकी कुशलता
की प्रार्थना करती रही | आक्रोश भी रहा , जिन कलियों को संभालना है उनके प्रति
इतनी लापरवाही कैसे हो सकती है , और माहिया बने –
क्या फूल यहाँ महकें / जहर हवाओं में / पंछी
कैसे चहकें |
ये रात बहुत काली / है कितना गाफिल / इस बगिया
का माली |
‘हिन्दी इक डोर हुई’ हिन्दी को समर्पित मेरी भावांजलि है और ‘राखी पे
बलिहारी’ रक्षाबंधन के पावन पर्व पर भाई और परिवार के प्रति शुभकामनाएँ हैं |
हिन्दी का परचम सदा ऊँचा रहे ,देश-विदेश में मेरी हिन्दी मान पाए ऎसी मेरी कामना
है –
बढ़कर , ना ठहरेगा / हिन्दी का परचम / ऊँचा ही फहरेगा |
राखी पे बलिहारी / फूलों से महके / भैया की
फुलवारी |
‘जय उन वीरों की’ देशप्रेम से परिपूरित ऎसी भावनाओं की अभिव्यक्ति है जो मुझे सदैव
भावविह्वल करती हैं | तिरंगे के रंगों में रँगा मन वीरों की हुंकारों से गर्व से
भर जाता है | भारतमाता की जय-जयकार से गुंजित गगन में गद्दारों की आवाज़ भला क्यों
सुनाई दे ?- जैसे भाव लिए माहिया तो मेरे प्रिय हैं ही लेकिन विशेष है वीर शहीदों
से सपने में हुआ वार्तालाप – जो वास्तव में सेना के शहीद मेजर की पत्नी के पति की
वीरगति के उपरान्त व्यवहार पर आधारित है | जिसने पूरी निष्ठा से पति के स्थान पर
भारतीय सेना को अपनी सेवाएँ समर्पित कीं , उस वीरांगना की हिम्मत और समर्पण सभी
टी.वी. चैनलों पर चर्चा का विषय रही | मेरे माहियाओं में जैसे वही शहीद स्वप्न में
अपना सन्देश परिवार तक पहुँचाने का निवेदन करता है | उसका माता-पिता , बहन , भाई
के प्रति सन्देश तो मार्मिक है ही लेकिन प्रिया को दिया गया सन्देश और उसका प्रत्युत्तर
बेहद मर्मस्पर्शी है, जिसमें वह अपनी प्रेयसी से दूसरा विवाह करने का आग्रह करता
है | पत्नी का उत्तर देखिए-
कैसे कायर माना / क्यों मनमीत कहो / मुझको ना
पहचाना |
पीछे तो आना था / नन्हे को लेकिन / फौलाद बनाना
था |
मैं वचन निभाऊँगी / माँ-बाबा मेरे / हर सुख
पहुँचाऊँगी |
पक्की है नींव बड़ी / सुन लेना प्यारी / सरहद पर
आन लड़ी | ....... कर्तव्यनिष्ठा , देशप्रेम और समर्पण की ऐसी सच्ची गाथा कि इसे
लिखते-पढ़ते कितनी बार रोई हूँ |
‘माँ के चरणों में’ माँ के प्रति मन की कोमल
भावनाओं का ज्वार है जो कभी उतरता ही नहीं | हर दुःख , हर पीड़ा के मरहम-सी , हर
सुख , हर लक्ष्य , हर सपने की सहयात्री बन माँ ही तो थामे रखती है इनकी डोर |
व्यसनों से मोड़ती और टूटते रिश्तों को जोड़ती माँ जैसे हर रिश्ते की खिड़की है ,शेष
द्वार बंद भी हो जाएँ पर यह खिड़की सदैव खुली रहती है | चोटी गूँथते कितनी बतियाती
थी क्या-क्या सिखाती रही क्या कभी भूला जा सकता है , वही पहली शिक्षक ,वही सखी ,
वही पहला प्यार , तभी तो कहा-
करती आराम नहीं / माँ तुझसा प्यारा / दूजा है
नाम नहीं |
‘ये रुत बौराई है’ , ‘नैना मतवारे’ , और ‘झूम
उठी बगिया’ में जैसा कि इनके शीर्षक ही कहते है -सहज मस्ती भरा जीवन और
उमंगों-उम्मीदों के रंगों से सजे माहिया तो हैं ही, साथ ही स्त्री-मन की जिजीविषा और
दृढ संकल्पों की झलक दिखाई देती है ,तमाम वर्जनाओं से लड़ती –टकराती ,अपनी
ऊर्जा-ऊष्मा को कायम रख अपनी राह निकालती स्त्री इन माहियाओं में दिखाई पड़ती है , इन
संभागों में वही मेरे प्रिय माहिया हैं –
फागुन क्या बोल रहा / एक नशा मस्ती / कण-कण में
घोल रहा |
हर वार करारा है / ढूँढ़ कहीं दिल में / आबाद
शरारा है |
अनुभव ने सिखलाया / चन्दन थे, जग ने / विषधर बन दिखलाया |
रचना क्या खूब रची / दुनिया में नारी / बगिया
में दूब रची .....निःसंदेह नारी सृजनहार की ऐसी कृति है जिसे उसने कोमल तन और जैसे
अटूट प्राण-शक्ति देकर भेजा है | इस संभाग में मेरा -‘भर खूब उमंगों से / आप सजा
लूँगी / मैं दुनिया रंगों से ’ माहिया प्रिय अनिता मंडा के माहिया ‘बेटी का भाग
लिखा / आँसू की मसि ले / क्यों दुःख का राग लिखा’ की जुगलबंदी में लिखा गया
था | ऐसे ही अनिता के ही माहिया –‘पथरीली राह मिली / औरत के हिस्से / क्यों हरदम
आह मिली’ के उत्तर में मैंने –‘पत्थर से टकराना / नदिया की फितरत / बेरोक बहे जाना
’ लिखा | इस प्रयोग की त्रिवेणी ब्लॉग पर खूब सराहना हुई |
‘मैं जाती मैके’ और ‘यूँ तो तू रानी है’ प्रायः
हर भारतीय परिवार में घटित होती पति-पत्नी की प्यार भरी चुहल है | ‘मौसम की
मर्यादा’ विशुद्ध पर्यावरण से सम्बद्ध माहिया हैं | हमारा व्यवहार ही हमारे पास
लौटकर आता है –
वो भी तोड़े वादा / जो हमने तोड़ी / मौसम की
मर्यादा |
‘खुशियाँ तो गाया कर’ और ‘हम इतना याद करें’ में
जीवन की छोटी-छोटी बातों के बड़े-बड़े सन्देश है | कुछ शिकवे-शिकायत कुछ यादों, कुछ
वादों से सजे इन माहियाओं में वास्तव में परिवार में एक प्यारी बिटिया द्वारा पूछे
गए भावुक करते प्रश्न से उपजा यह माहिया मुझे विशेष प्रिय है –
‘मैंने तो मान दिया / क्यों बाबुल तुमने / फिर
मेरा दान दिया |’
‘तोलो फिर कुछ बोलो’ आत्मविश्लेषण परक माहिया से
शुरू होकर खट्टे-मीठे भावभरे माहिया प्रस्तुत करता है | तमाम प्रतिकूल
परिस्थितियों , समाचारों के बावजूद कुछ है कि जो मुझे हारने नहीं देता , निराश
नहीं होने देता यही कारण है कि यदि मैंने कहीं कहा –
‘अब यूँ न विचर तितली / धूप यहाँ दिन में / कल
डर-डर कर निकली |’ ... तो साथ ही यह भी कहा-
ऐसे न किरन हारी / जीत गई , यूँ तो- / था
अँधियारा भारी |’
‘वो प्रेम पतंगा है’ के माहिया भी अपनी सतरंगी
आभा के साथ मन को आह्लादित करते भावों की अभिव्यक्ति करते हैं | प्रेम अपने परम
पुनीत स्वरूप के साथ उपस्थित है | प्रेम पर अपना सर्वस्व न्योछावर करते हृदय में
भावों की गंगा नहीं होगी तो और क्या होगा | लेकिन मुझे इस शीर्षक के अंतर्गत
मोबाइल-प्रेम पर ये माहिए रचने में और अधिक आनंद आया –
तुमसे तो जोड़ गया / मोबाइल फुनवा / लेकिन घर तोड़
गया | ... दूसरी ओर एक पक्ष यह भी –
ये फुनवा यूँ भाए /
परदेसी पोता / दादी से बतियाए |
अस्तु ,सुख के साथ
दुःख , अँधेरे के साथ उजाला जीवन के आम्नात सत्य हैं , दोनों परस्पर एकनिष्ठ भाव
से एक-दूसरे का अनुसरण करते हैं तो मेरे इस प्रयास के भी श्वेत-श्याम दोनों पक्ष
होंगे ही | यदि कुछ भी सुन्दर, सुखद है तो वह माँ वाणी का कृपा प्रसाद है | जो त्रुटियाँ
हैं वह मेरी हैं ,उनके लिए क्षमा प्रार्थिनी हूँ | साथ ही आभार व्यक्त करती हूँ
आदरणीय रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जी का जिन्होंने इस सृजन-यात्रा में मेरा पथ प्रदर्शन किया | त्रिवेणी
, सहज-साहित्य , आधुनिक साहित्य , उदंती , हरिगंधा , सरस्वती सुमन , अनुभूति आदि
प्रतिष्ठित पत्रिकाओं की भी हृदय से आभारी हूँ जिन्होंने समय-समय पर मेरे माहिए
प्रकाशित कर मेरा उत्साह बढ़ाया | त्रिवेणी पर तथा अन्यत्र प्रकाशित मेरे माहिया
पढ़कर सुन्दर प्रतिक्रियाओं से मेरे लेखन को ऊर्जा प्रदान करते परम आदरणीय श्याम
त्रिपाठी जी (सम्पादक-हिन्दी चेतना ),आ. विज्ञानव्रत जी , सुदर्शन रत्नाकर जी ,
कृष्णा वर्मा जी , प्रियंका गुप्ता जी , कमला घटाऔरा जी , कमला निखुर्पा जी , शशि
पाधा जी , डॉ. भावना जी , डॉ. कविता भट्ट जी , ज्योत्स्ना प्रदीप जी , अनिता ललित
जी , प्रिय अनिता मंडा , सुशीला शिवराण जी , डॉ. जेन्नी शबनम जी , राजेश कुमारी जी
, डॉ. सुरेन्द्र वर्मा जी एवं सुभाष चन्द्र लखेड़ा जी के प्रति भी बारम्बार आभारी
हूँ | छंद बद्ध रचनाओं की निष्णात कवयित्री सुनीता काम्बोज जी ने भी समय-समय पर
माहिया छंदों की लयात्मकता इत्यादि पर अपने अमूल्य सुझाव देकर मुझे कृतार्थ किया
है , अतः उनके प्रति भी हृदय से कृतज्ञता व्यक्त करती हूँ |
स्वर्गीय पिता जी का
आशीर्वाद सदैव मैंने अपने साथ अनुभव किया है , मेरे शब्द-शब्द में वही तो हैं, उन्हें
कोटिशः नमन | आदरणीया माँ , अनुजा विद्योत्तमा और प्रिय अनुज विक्रमादित्य एवं
आशुतोष के सराहना भरे शब्द मन को आनंद से भरते रहे हैं ,दोनों भ्रात-वधु नीता और
मोनिका भी समय-समय पर सुन्दर शब्दों से उत्साह बढाती रहीं उनके प्रति मेरी ढेरों शुभाशंसाएँ ! माँ को सादर
नमन ! परिवार के सहयोग के बिना तो कोई कार्य संभव ही नहीं | मेरे जीवन सहचर श्री
अनिल जी मेरे लेखन की आत्मा हैं , बिखरा ,फैला घर , शाम ढले न दीया न बाती
कम्प्यूटर पर लिखने में डूबी ज्योत्स्ना शर्मा की रचनाओं में यदि सुख के स्वर सुनाई
दें तो इसका श्रेय निःसंदेह उन्हें ही जाता है , इसके लिए धन्यवाद शब्द बहुत छोटा
है | प्रिय बिटिया अनन्या और बेटे अनन्त का मेरी रचनाओं के प्रकाशन पर प्रफुल्लित
मुख और सुन्दर प्रतिक्रियाएँ मुझे आनंद से भर देते है , उनके लिए ढेरों शुभकामनाएँ
|
आकर्षक आवरण पृष्ठ
के लिए आ. के. रवीन्द्र जी एवं सुन्दर , मोहक कलेवर में आबद्ध कर मेरे इन माहिया छंदों
को पुस्तक के रूप में प्रस्तुत करने के लिए आदरणीय गिरिराजशरण अग्रवाल जी एवं हिन्दी
साहित्य निकेतन परिवार के प्रति हृदय से कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ |उनक इस
सकारात्मक सहयोग के बिना यह कार्य संभव ही न था |
‘तुमसे उजियारा है’
में आपसे , समाज से प्राप्त विविध रसान्वित अनुभूतियों को ही माहिया के रूप में
कहा है | मेरी इन रचनाओं में आपकी सहृदयता की ही उजास भरी है | यदि कुछ माहिया छंद
भी उस आत्मिक प्रकाश को आप तक पहुँचाने में समर्थ हो सके तो मैं अपने प्रयास को
सफल समझूँगी | आपकी प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी |
सादर
ज्योत्स्ना शर्मा
-०-०-०-०-०--०-०-०-०-०-०--०-०-०-०-
Wednesday, 24 October 2018
Saturday, 29 September 2018
137-वंदन अभिनन्दन शरद !
डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
वंदन-अभिनन्दन शरद !
वंदन-अभिनन्दन शरद ! स्नान-पर्व में सद्यस्नाता , धुली-निखरी
प्रकृति को निहारते तुम आ ही गए | लो विराजो ! उसने तुम्हारे स्वागत में धवल-कषाय
हरसिंगार के फूलों का आसन बिछा दिया है | बरखा के मुक्ताहार से गिरे जिन मोतियों
को समेटकर मार्ग के दोनों ओर भर दिया था , उन्हीं से झाँकती रातभर जागी
कुमुदिनियाँ स्वागत-गीत गा-गाकर थक गई हैं और निद्रोत्सव
मनाकर उठे प्रफुल्लित कमल मुस्कुरा रहे हैं | हरी-हरी टेकरियों पर सजे-धजे वृक्ष पवन
और पत्तियों की ताल पर झूम रहे हैं , मानो तुम्हारे आगमन का उत्सव मना रहे हों |
पके धान की स्वर्णाभ बालियाँ लोक-कल्याणार्थ सर्वस्व त्याग को तत्पर हैं | निर्मल
आकाश में दौड़-धूप करते धौले बादल न जाने किस व्यवस्था में लगे हैं | कभी कहीं
छिड़काव करते हैं तो कभी जल से सेवल करते हैं | यूँ ही तो नहीं महाकवि वाल्मीकि ,
कालिदास ने तुम्हें अपनी कविताओं में उतार दिया | तुलसी दास भी तुम्हारी मनोहर छटा
पर मुग्ध हैं – ‘बरषा बिगत सरद रितु आई , लछिमन देखहूँ परम सुहाई’ |
हे उत्सवधर्मी ! तुम्हारा आगमन स्वयं एक उत्सव है | तुम्हारे
आने की आहट से ही मेरे भारत की माटी का कण-कण पुलकित हो उठता है | समाज को
परम्पराओं से जोड़ते हुए तुम कितनी चतुरता से समरसता का संचार करते हो | तिलक
द्वारा प्रारम्भ किए गणेशोत्सव में उमड़े जन-ज्वार के आरती , संध्या-वंदन से गुंजित
गगन धूप-दीप से सुवासित हो जाता है | गरबे की धुन पर थिरकते पाँव और रामलीलाओं में
गूँजती चौपाइयाँ वाले गाँव तुम्हारे सामाजिक प्रबंधन-चातुर्य को कहते हैं | ‘विजय-पर्व’
में दशानन की पराजय अहंकार-अत्याचार पर सरलता, सौम्यता और सदाचार की
विजय का घोष है |
प्रिय शरद ! पितरों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते तुम
आराधना भरे भावों के वाहक हो ! वासना से दूर विशुद्ध उपासना ,प्रेम और सौहार्द के
पोषक ! शारदीय नवरात्रों में धरा पर साक्षात देवी दुर्गा का जागरण-अवतरण होता है ,निश्चय
ही स्त्री-शक्ति का पुण्य-स्मरण ! तुम्हारा ही प्रताप है कि पीयूषवर्षी चन्द्र धरा
को क्षीरसागर बना देता है | ‘कोजागरी’ देवी लक्ष्मी की अभ्यर्थना के साथ-साथ गर्वोन्मत्त
कन्दर्प के मान-मर्दन का पर्व भी है | हे रसवर्षी सखा ! अद्भुत है तुम्हारा समरसता
का व्यवहार ! न पंखे की चिंता न कम्बल की पुकार , धन्य हो तुम ! धन्य है तुम्हारा
सर्वहारा से प्यार !
डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
Wednesday, 26 September 2018
136-थिरकते पुरवाई के पाँव !
डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
शृंगार छंद
शृंगार छंद
चरण के प्रारम्भ में 3-2 मात्राओं के क्रम के साथ 16-16 मात्राओं के चार चरण ,दो-दो चरणों के तुक मिलते हैं ,
तुकांत में गुरु लघु (2-1)मात्राओं का क्रम होता है |
झूमती गाती आई भोर
दिवस लो होने लगा किशोर
थिरकते पुरवाई के पाँव
तृप्त हों तृष्णाओं के गाँव ।।
मिले जब मन से मन का मीत
मौन में मुखरित हो संगीत
अधर पर सजे मधुर मुस्कान
हुई फिर खुशियों से पहचान ।।
जले जब नयनों के दो दीप
लगी फिर मंज़िल बहुत समीप
अँधेरों ने भी मानी हार
किया है स्वप्नों का शृंगार ।।
थामकर हम हाथों में हाथ
चलेंगे जनम-जनम तक साथ
राह में मिलने तो हैं मोड़
कहीं मत जाना मुझको छोड़ ।।
-०-०-०-०-
Sunday, 12 August 2018
135-चलो री सखी झूलन चलें !
डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
कहीं सजे होंगे मेले , झूल
चलो री सखी फिर से मिलें
चलो री सखी झूलन चलें ...
तुम तो बस गईं संगम-तीरे,
मैं गुजराती नार
मस्त बरेली ,याद दिलाऊँ,
वो पहले का प्यार …
कहीं हमको न जाना तुम भूल , चलो ......
दिल्ली,मुंबई,संगरूर में,
कोई अहमदाबाद
दिल से दिल के आज जुड़े हैं
तार गाजियाबाद…
देखो यादों के महके फूल, चलो ..........
सूरत और बड़ौदा यूँ तो ,
नहीं ज़रा भी दूर
फिर भी जाने बात हुई क्या
मिलने से मज़बूर ..
हसरत पर चढ़ गई धूल , चलो .......
मैया ने गुंझिया भिजवाईं
और भैया ने साड़ी
बालकनी में खड़ी अकेली
देखूँ हारी-हारी…
मेरे मनवा में चुभ रहे शूल , चलो .....
-०-
Monday, 23 July 2018
134 - कैसे गाऊँ गीत सुहाना !
-डॅा. ज्योत्स्ना शर्मा
कैसे गाऊँ गीत सुहाना !
क्या सम्भव है ?
तृष्णा के तपते अधरों पर
तृप्ति का आकर मुस्काना !
अरे आग्रही ! मत फँस इनमें
ये इच्छाएँ छद्म परी हैं
मधुर, मदिर, मुस्कान नशीली
इन्द्रजाल की कनक-छरी हैं
युगों-युगों से सिखा रही हैं
तंत्र-मंत्र, पथ से भटकाना।
ऊहापोह की नदिया ,माँझी
कण्ठ-कण्ठ तक डूब गया है।
हाय उजाला देते-देते
क्या सूरज भी ऊब गया है
मावस की मन्थर गति चाहे
धवल चाँदनी का बिछ जाना ।
कैसे गाऊँ गीत सुहाना !
-०-
( चित्र गूगल से साभार )
Friday, 13 July 2018
133 - ये लफ्ज़ नहीं सफ़र के छाले हैं !
डॉ•ज्योत्स्ना
शर्मा
सफ़र के छाले हैं( हाइबन-हाइकु-संग्रह) : डॉ•सुधा गुप्ता; पृष्ठ:112 ; मूल्य :220 रुपये।, संस्करण: 2014 ; प्रकाशक: अयन प्रकाशन , 1/20, महरौली नई दिल्ली-110030
हाइकु ,ताँका ,सेदोका और
चोका के बाद जापानी साहित्य की एक और लोकप्रिय विधा ‘हाइबन’से परिचय हुआ। कुछ
हाइबन पढ़े तो और अधिक जानने की जिज्ञासा हुई । तभी डॉ. सुधा गुप्ता जी का हाइबन और हाइकु का संग्रह ‘सफर के छाले है’
पढ़ने का सुयोग बना ; जिसे पढ़कर हाइबन के भावगत-शिल्पगत सौंदर्य ने
और भी अभिभूत कर दिया ।अत्यंत रोचक और सरस विधा पर भूमिका में रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी ने
पर्याप्त जानकारी प्रदान की है । गद्य काव्य का स्वरूप धारे प्रकृति, परिवेश , यात्रा-वृत्तांत
,संस्मरण
,डायरी
तथा अन्य विविध भावों की सरस चर्चा और फिर उन्ही भावों को पुष्ट करते एक या अनेक
हाइकु ऐसा कलेवर लिये हाइबन का स्वरूप मनोमुग्धकारी है । पुस्तक के दो खण्डों
में से प्रथम में कवयित्री /लेखिका ने
जीवन के मधुर-तिक्त अनुभवों को बेहद सरसता , सजीवता के साथ अभिव्यक्त किया है
। वस्तुतः हाइबन का भाव-संसार, इसकी विषय-वस्तु बहुत व्यापक एवं गहन है ,जिस पर
सुधा जी की समर्थ लेखनी ने पर्याप्त रस-वर्षण किया ।‘ सराय' अपनों की , अपने वक्त
की निष्ठुरता को कहता है । ‘पाथर पंख’ विवशता की पराकाष्ठा है सुन्दर कामनाओं का
विस्तृत संसार और पत्थर के पंख ... अब शिकायत करें भी तो किससे उसके सिवा -
“वाह रे ऊपर
वाले ! तू भी बड़ा मज़ाक पसंद है ! नित नए कौतुक करना तेरी फ़ितरत में शामिल !
आग का
प्याला /धरती के होंठों से / लगा के हँसा ।
उस आग को
/धरती तो पी गई /तू खुद जला ।
‘कपाल कुण्डला’ और ‘खण्डहर’
दुर्वह एकांत की घनीभूत पीड़ा हैं .... “बाहर आती तो कैसे ? रास्ता पाती तो क्यों कर ? वह खण्डहर
तो खुद मेरा अपना था !!
बंजर धरा /डूब के तिनके को / तरस रही”
‘दुःख चीता है’ पर “ख़ुशी की हिरनी और दुःख का चीता” इतना कथन
मात्र संवेदना के सागर को आलोड़ित करने में समर्थ है । ‘अर्चि का आचमन’ , ‘शोक-गीत’ जीवन के कटु सत्य से रूबरू / साक्षात्कार कराते
हाइबन हैं । नैनीताल प्रवास, कुमायुँ प्रवास , नाज़ुक
फ़ूलचुकी ,फिर
आ गया चैत ,
कूकी
थी पिकी और पोशाक जैसे हाइबन कवयित्री के प्रकृति के साथ तादात्म्य को द्योतित
करते हैं ।मासूम फ़ाख्ता और ‘पोशाक’ की संवेदनात्मक दृष्टि .....
“अरी
,तू
पूरी बारिश में भीगती रही थी क्या ? घने पत्तों ने भी आसरा न दिया ? कुछ न बोली
| उसके
भीगे डैनों और भारी पंखों ने ही कहा –
तेरी तरह /कई जोड़ी पोशाक / नहीं है यहाँ |
पंछी के पास /बस एक पोशाक / गीली या सूखी |”
सिल्वर ओक की शाखाओं में फर-फर करती नन्ही
चिड़िया का आना और जाना ..देखिए... “क्षिप्र गति पंखों की हलचल से सहसा पेड़ की
टहनियाँ नींद से चौंक पड़ती हैं ,उसकी चंचलता को देख ,चकित-विस्मित..पलांश
में गायब हो जाती .... यही जीवन है ?
आई चिरैया /टहनी मुस्कुरा दी /उड़ी ,उदास !
यात्रा वृत्तांत से जुड़े अन्य हाइबनों में गोरखपुर , कुशीनगर और
सात देवियों के दर्शन आध्यात्मिक , दिव्य
भावनाओं ,अनुभूतियों
से परिवेष्टित हाइबन हैं । सुधा जी स्वयं कह उठती हैं-
इतना सुख
/सम्हाले न सम्भले /कहाँ सहेजूँ ?
पर्यावरण के प्रति सजगता यहाँ भी मुखर हुई है
।राजस्थान टूर पर कवयित्री अजमेर-पुष्कर जी की विगत और वर्तमान दशा पर तुलनात्मक
चिंतन कर व्यथित हैं -
1976
में.. स्फटिक मणि/दूर तक फैला था /जल -विस्तार ।
और
2001
में... विनाश लीला /छिलके ,पन्नी ,टोंटे
/फैले पड़े हैं ।
कर्मयोगी सूर्य उन्हें मोहित करता है...... “ सूरज तो सच्चा कर्मयोगी ....
पौ फटते ही / सूरज बुनकर /काम में लगा |
बुनता रहा /रौशनी के लिबास / सबके लिए |”
........तो
साँझ की देहरी पर खड़ा सूरज अनकही कथा कहता है।
संगदिल मौसम के सितम मन दुखा जाते हैं , दूसरी ओर महकी सुबह में आश्वस्ति
के स्वरों की मधुर गुनगुनाहट भी है -
उनका आना
/खुशनुमा सुबह /महक उठी ।
दूसरे खंड ‘मौसम बहुरंगी’ में कहना न होगा कि कवयित्री ने हाइकुओं के
माध्यम से विविध ऋतुओं के लुभावने चित्र साकार किए हैं और मौसम के व्याज से बहुत
कुछ कहा है-
ठसक बैठी
/पीला घाघरा फैला /रानी सरसों ।
दर्पण देखे
/फूलों के भार झुकी /नव-वल्लरी ।
चैती गुलाब
/खुशबू न समाए /हवा उड़ाए ।
कली थी
खिली /वैशाख -आँधी से /धूलि में मिली ।
दो युवा बेटी / धरती है बेचैन /’बाढ़’ व सूखा |
लाल छाता
ले /घूमती वन कन्या /जेठ मास में । ...और
यह भी देखिए.....जो केवल ऋतु वर्णन नहीं
है ...
शीत की मारी / पेट में घुटने दे / सोई है रात ।
सूखी
पत्तियाँ / चरमरा रही हैं / पाँवों के तले ।
अटल ध्रुव का परम सात्त्विक बिम्ब .........
चमका
ध्रुव : /माँ की लौंग का हीरा /कौंध मारता
|
कहाँ
तक कहूँ,एक
से बढ़कर एक अनगिन मोहक चित्र उकेरे गए हैं ,जिनका आनंद पुस्तक पढ़कर ही ले
पाना संभव है । डॉ•सुधा गुप्ता जी हिन्दी –जगत् में सार्थक हाइकु का पर्याय बन गई
हैं। इनकी लेखनी से नि:सृत शब्द बोलते–बतियाते प्रतीत होते हैं। इसीलिए इनकी भावानुवर्तिनी भाषा पुस्तक की सरसता को और अधिक
बढ़ाने में पूर्णतया समर्थ है । पुस्तक के विषय में स्वयं सुधा जी ने कहा है-
‘ये लफ्ज़
नहीं /सफ़र के छाले हैं / दर्द-रिसाले’
हाइबन और हाइकु की मिली-जुली अनुभूतियों वाले इस संग्रह के बारे में मेरा इतना ही कहना है-
कभी रागनी
/कभी जीवन-कथा /साकार व्यथा ।
-0-
- डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
H-604, प्रमुख हिल्स , छरवाडा रोड , वापी
जिला-वलसाड , गुजरात
396191