सृजन की
चाह लिए ,संचित उड़ेलकर ,
जगती का
जैसे कि पर्जन्य ताप धोता है |
स्नेह से
दुलारे कभी ,दण्ड का विधान कर ,
कुम्भकार सम
नव रूप में संजोता है |
नन्हीं-नन्हीं
कलियों में सुविचार सींच कर ,
राष्ट्र के
निर्माण हेतु प्राण बीज बोता है ,
कृष्ण ,रामकृष्ण
,सार्थ ,दे विवेक और पार्थ ,
विज्ञ ,वन्दनीय
वह गुरु धन्य होता है ||
ऐसे सद्गुरु की कृपा सबको सदा प्राप्त हो ..बारम्बार नमन और हार्दिक शुभ कामनाओं के साथ ...
डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
(चित्र गूगल से साभार )
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (01-08-2015) को "गुरुओं को कृतज्ञभाव से प्रणाम" {चर्चा अंक-2054} पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
गुरू पूर्णिमा तथा मुंशी प्रेमचन्द की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हृदय से आभार आदरणीय !
Deleteज्योत्स्ना जी का यह कवित्त गुरु के प्रति अगाध श्रद्धा से ओरप्रोत है । सुन्दर और्भावपूर्ण रचना के लिए हार्दिक बधाई!
ReplyDeleteहृदय से आभार आदरणीय !
Delete