अनिता मंडा
रूह
१
आग इसे जला नहीं सकती
पानी गला नहीं सकता
हवा इसे सुखा नहीं सकती
पर सदा छुअन से परे
कब रह पाती है रूह
दबती तो है यादों के बोझ से
काँपती तो है काली
अँधेरी परछाइयों से
तोड़ते तो हैं दुःख के
पत्थर इसे
बंधती तो है
मोह के धागों से
कहाँ रह पाती है
रूह आज़ाद।
२
सज़दे में है या गुनाह में है
दिल तू ही बता किस राह में है...
फिर एक छनाका होने को है
शीशा पत्थर की पनाह में है...
अब रूह काँपती है इस चमन की
कली इक खिलने की चाह में है...
यूँ खेला न करो टूटे दिल से
कुछ तो असर उसकी आह में है...
हमसे सच कह दिया करो हुजूर
कुछ ना रखा झूठी सी वाह में है...
छुपा ना रहेगा कुछ भी उससे
अब हर कदम उसकी निगाह में है...
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(चित्र गूगल से साभार)
आदरणीया ज्योत्स्ना जी बहुत बहुत आभार मेरी कविताएँ यहां लगाने के लिए।
ReplyDeleteअनिता मण्डा की कविताएँ मन को मुग्ध करती हैं। विचार और कल्पना का सौन्दर्य पाठक को बाँध लेता है।
ReplyDeleteउत्साह बढ़ाने हेतु हृदय से बहुत बहुत आभार
Deleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 24-09-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2108 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
शुक्रिया
Deleteदोनों रचनाएँ बहुत ही उत्कृष्ट...
ReplyDeleteहृदय से आभार
Deleteदोनों रचनाएं बहुत प्रभावी ...
ReplyDeleteहार्दिक आभार
Deleteभावप्रवण, सहज और सुंदर । बधाई प्रिय अनिता जी !
ReplyDeleteहार्दिक आभार
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सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार....