Sunday, 18 February 2018

127-“खोई हरी टेकरी” के जंगल को गाने दो !




'खोई हरी टेकरी’( पर्यावरण -हाइकु): डॉ सुधा गुप्ता। प्रकाशक:पर्यावरण शोध  एवं शिक्षा संस्थान,506/13 शास्त्रीनगर मेरठ-250004; पृष्ठ :64 ; मूल्य: 80 रुपये , संस्करण:2013
साहित्य समाज का दर्पण ही नहीं अपितु सचेतक और मार्ग दर्शक भी है । तीनों ही विशेषताओं को आत्मसात् किये डॉ सुधा गुप्ता जी द्वारा विरचित पुस्तिका ‘खोई हरी टेकरी’  इसी अवधारणा को पुष्ट करती है ।पर्यावरण के प्रति समाज का उदासीन व्यवहार ,उस पर चिंतन को विवश करते साथ ही समाधान प्रस्तुत करते हाइकु वास्तव में ऐसे अमृत बिंदु हैं जो संवेदनहीन, मृत प्राय समाज में जीवन का संचरण करने में पूर्णत : समर्थ हैं । कवयित्री पहले ही हाइकु से समाज को सचेत करती दृष्टिगोचर होती हैं -
‘चेत मानव / फल फूल छाया है / पेड़ों की माया।’

सौन्दर्य में विचरण करती दृष्टि से समाज कल्याण कभी ओझल नहीं होता .-
‘तरु चिकित्सा /पर्यावरण शुभ /हरीतिमा भी ।’
कहीं निसर्ग पुत्री ने हरी-भरी पुष्पान्विता धरा को सुवसना युवती के रूप में देखा .....
‘हरा लहँगा /फूलों कढी ओढ़नी /सजी है धरा ।’,वहीं दूसरी ओर...जादुई छड़ी लिये परी सी दिखती आज वृक्ष-विहीन होती हुई-ऋतम्भरा धरा लज्जावनत सी दिखाई देती है ।विकास के भ्रम में हरियाली का विनाश करता मानव ऋषि मुनि जैसे वृक्षों के शाप का अधिकारी तथा स्वयं के ही विनाश का कारण बन जाता है -
‘मानव बना /प्रकृति का दुश्मन /स्वयं का विनाश ।’

प्रकृति के कोप से वायु दूषित हो रोगिणी हो गई है ,चिड़ियों का दम घुटता है और वो गीत भूल गई हैं ।शरद पूनो भी गर्द की मारी पीली पड़ गई है -‘शरद पूनो /पीली पड़ी बेचारी /गर्द की मारी ।’
फिर मनुष्य का तो कहना ही क्या ! मेघ रूठ गए हैं , नदी सूख गई है और कूप बावड़ी भी खाली हैं ।इस बेसुध मानव व्यवहार पर कवयित्री की पैनी दृष्टि  पड़ी है ।सड़कों पर सार्वजनिक नल  जिस तरह खुले पड़े  रहते हैं , यह  स्थिति चिन्ताजनक है  । वह कह उठती हैं -
‘साक्षात काल /पानी की बरबादी/इसे बचाओ ।’

शांत प्रकृति के मधुर संगीत में रमी कवयित्री की प्रवृत्ति को आज का शोर भरा संगीत संगीत नहीं लगता -‘आज का मीत /कान फाड़ संगीत /कल का यम ।’
आज वर्षा की प्रथम फुहार पर सौंधी सौंधी गंध नहीं आती। मौसम के अप्रत्याशित व्यवहार के लिए भी स्वयं मानव व्यवहार एवं आकाशीय प्रदूषण को उत्तरदायी मानती हैं और चेताती हैं -
-वर्षा फुहार /खोई महक ,जो थी /प्राणदायिनी ।
-बदल डाले /ग्रीष्म शीत मानक /सूर्य कोप ने ।
कब चेतोगे /करो रफू चादर /ओजोन पर्त।

    अंत में ..गौरैया ,मोनाल कस्तूरी मृग और यायावर सारस को खोजती कवयित्री गा उठती हैं मधुर रस सिक्त जंगल का गीत -
स्वाधीन मुक्त /सदा मस्ती में डूबा /सबका मीत ।
आत्म विभोर /प्रभु-भक्ति में लीन /सबसे प्रीत ।
तथा साथ ही एक सद्भावना -सन्देश -‘‘मनमौजी है /जंगल को गाने दो / अपना गीत।’  
      सुधा जी की सशक्त लेखनी सहृदयों को वहाँ पहुँचा देती है कि जहाँ उन्हें होना चाहिए ।किम् अधिकम् .....’खोई हरी टेकरी’ को पढ़ना तप्त मरुभूमि में ऐसी हरी टेकरी को पा लेना है; जो अपने सुन्दर ,सुगन्धित पुष्पों से सहृदयों के मन और हिंदी-हाइकु-उपवन को सदा सुवासित करती रहेगी ।
-0-
डॉ ज्योत्स्ना शर्मा ,प्रमुख हिल्स ,एच टावर -६०४ ,छरवाडा रोड ,वापी ,जिला वलसाड -पिन -३९६१९१ -गुजरात (भारत)




4 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (20-02-2017) को "सेमल ने ऋतुराज सजाया" (चर्चा अंक-2886) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete
    Replies
    1. मेरे लेखन के प्रति आपके इस स्नेहभाव को नमन करती हूँ आदरणीय , हृदय से आभार !

      Delete
  2. सार्थक समीक्षा के लिए आप दोनों को हार्दिक बधाई | सादर नमन

    ReplyDelete
  3. बहुत बहुत आभार सुनीता जी !

    ReplyDelete