Thursday, 30 September 2021

164- भूले गले लगाना !


 

                  चंदा-सूरज

                मुट्ठी में बाँध लिए 

                सागर सारे

                पर्वत नाप लिए 

                अँधियारों पे

                विजय पा गए  हो

                उजालों में क्यूँ

                यूँ भरमा गए हो ?

                हवा, धूप भी

                दासियाँ हों तुम्हारी

                ममता नहीं

                स्वर्ण की आभ प्यारी

                ऊँचे भवन

                सारा सुख खजाना

                खुशियों भरे

                प्रीत के गीत गाना

                व्यर्थ ही तो हैं

                दे ही ना पाये जब

                माता-पिता को

                तुम दो वक्त खाना

                भूले गले लगाना ।


डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा 

(चित्र गूगल से साभार)












11 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन  में" आज शुक्रवार 01 अक्टूबर  2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है....  "सांध्य दैनिक मुखरित मौन  में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. रचना को आपका स्नेह मिला ,हृदय से धन्यवाद आदरणीया 🙏💐

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  3. बहुत मारक रचना प्रिय ज्योत्सना जी। मां-बाप की बदौलत ही प्रगति के शिखर छूती संतानें,धन-पद के गर्व में फूली सब भूल जाते हैं! पर सच में, उनका समस्त वैभव व्यर्थ ही तो है जब इनके असहाय माता-पिता को इनका प्यार और दुलार नहीं मिलता। आखिर माता पिता भी एक उम्र के बाद बच्चों सरीखे ही हो जाते हैं।

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    1. रचना के मर्म तक जाती , उसे मान प्रदान करती प्रतिक्रिया के हार्दिक धन्यवाद रेणु जी 🙏💐

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    2. सादर वन्दन-अभिनंदन 🌷🙏🌷🙏🌷

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  4. सुंदर अभिव्यक्ति आदरणीय ।

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    1. हृदय से आभार आपका 💐🙏

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  5. बहुत ही मार्मिक और हृदयस्पर्शी रचना

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    1. दिल से शुक्रिया मनीषा जी 💐🙏

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  6. यथार्थ पर , प्रेरक उद्बोधन।
    सुंदर सृजन।

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    1. मधुर है मन की वीणा , प्रेरक उपस्थिति के बहुत-बहुत आभार आपका 💐🙏

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