Sunday, 9 November 2014

बच्ची ही हूँ !


डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा 

निगाहों में या तो बसाया न होता,

बसाकर नज़र से गिराया न होता ।१

बुलन्दी पे था इस चमन का सितारा

अगर खुद ही हमने झुकाया न होता ।२

क़दमों तले रौंदकर रख चले थे

जो हाथों में परचम उठाया न होता ।

बच्ची ही हूँ , तेरे आँचल के साए,

क्या होती , जो ऐसा बनाया न होता |

दिवारें भी तंग हैं ,कि घर हो ,वतन हो,


खुदा ,इनको सर पे चढ़ाया न होता ।४


भला आग दिल की लगी कैसे बुझती

,
जो आँखों में दरिया समाया न होता । ५


चित्र गूगल से साभार 

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4 comments:

  1. भला आग दिल की लगी कैसे बुझती
    जो आँखों में दरिया समाया न होता ..
    बहुत ही लाजवाब शेर ... गहरी बात कही है ...

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  2. भला आग दिल की लगी कैसे बुझती
    ,
    जो आँखों में दरिया समाया न होता । waah waah jyotsana ji , sundar sher kahen hai aapne badhai priy sakhi

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  3. खूबसूरत अशआर, उम्दा ग़ज़ल...दिली मुबारकबाद!

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  4. बेहतरीन भाव ... बहुत सुंदर रचना प्रभावशाली प्रस्तुति

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