डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
निगाहों में या तो बसाया न होता,
बसाकर नज़र से गिराया न होता ।१
बुलन्दी पे था इस चमन का सितारा
अगर खुद ही हमने झुकाया न होता ।२
क़दमों तले रौंदकर रख चले थे
जो हाथों में परचम उठाया न होता ।३
बच्ची ही हूँ , तेरे आँचल के साए,
क्या होती , जो ऐसा बनाया न होता |
दिवारें भी तंग हैं ,कि घर हो ,वतन हो,
खुदा ,इनको सर पे चढ़ाया न होता ।४
भला आग दिल की लगी कैसे बुझती
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जो आँखों में दरिया समाया न होता । ५
चित्र गूगल से साभार
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भला आग दिल की लगी कैसे बुझती
ReplyDeleteजो आँखों में दरिया समाया न होता ..
बहुत ही लाजवाब शेर ... गहरी बात कही है ...
भला आग दिल की लगी कैसे बुझती
ReplyDelete,
जो आँखों में दरिया समाया न होता । waah waah jyotsana ji , sundar sher kahen hai aapne badhai priy sakhi
खूबसूरत अशआर, उम्दा ग़ज़ल...दिली मुबारकबाद!
ReplyDeleteबेहतरीन भाव ... बहुत सुंदर रचना प्रभावशाली प्रस्तुति
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