डॉ.ज्योत्स्ना शर्मा
बीती हुई बातों से बिछुड़कर नहीं देखा ,
क्यूँ पास में थे पंख फिर उड़कर नहीं देखा |
वो प्यास से तड़पा बहुत शहरी गुरूर में ,
था गाँव में पनघट मगर मुड़कर नहीं देखा |
कुछ भी कठिन नहीं था ,रही इक भूल हमारी ,
बस एक ने भी एक से जुड़कर नहीं देखा |
बेपर्दगी गुरबत का दर्द झेलना पड़ा ,
जब पाँव ने चादर में सिकुड़कर नहीं देखा |
ये नफरतों की आग बुझे भी तो किस तरह ,
आँखों के समंदर ने निचुड़कर नहीं देखा ||
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ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (26-05-2013) के चर्चा मंच 1256 पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ
ReplyDeleteमेरी भावाभिव्यक्ति के प्रति आपके इस स्नेह और सम्मान के लिए ह्रदय से आभार !
Deleteसादर
ज्योत्स्ना शर्मा
वाह,वाह!!
ReplyDeleteमेरी भावाभिव्यक्ति के प्रति आपके इस स्नेह और सम्मान के लिए ह्रदय से आभार !
Deleteसादर
ज्योत्स्ना शर्मा
चलिए मुझे खुसी है ही इतनी प्यारी सी ग़ज़ल पर कमेन्ट करने का सबसे पहला अवसर मेरे पास है ..इसे पढकर आनायास ही मुह से निकल उठता है वाह वाह ..बैसे ग़ज़ल मैं भी लिखता हूँ इसलिए आपका ब्लॉग आज ही ज्वाइन कर रहा हूँ और आपको भी आमंत्रित कर रहा हूँ अपना ब्लॉग अनुशरण के लिए रचना डेश बोर्ड पर ही मिल जाए करे
ReplyDeleteमेरी भावाभिव्यक्ति के प्रति आपके इस स्नेह और सम्मान के लिए ह्रदय से आभार !
Deleteसादर
ज्योत्स्ना शर्मा