डॉ.ज्योत्स्ना
शर्मा
"अतिवृष्टियाँ
खुद भेंट अपनी
अनावृष्टियाँ "
और ......
"जग दरिया लाख कहे
जान गई मैं तो
परबत की पीर बहे "
जब ये पंक्तियाँ लिखीं थीं
तब नहीं जानती थी कि आघात पर आघात सहते पहाड़ों की पीड़ा इस तरह द्रवीभूत होगी
....बादल का दिल इस तरह फट पड़ेगा ,,,और फिर सैलाब किसी के
रोके न रुकेगा ....डुबो देगा पूरे भारत के दिल को आँसुओं के समंदर में.... लेकिन
मन में कहीं न कहीं कोई चिंता ..आशंका थी ।
चिर काल से तीर्थ यात्राएँ हमारी आध्यात्मिक ही
नहीं मानसिक तथा शारीरिक सुदृढ़ता का कारण रही हैं ।ऊँचे पर्वतों ,समुद्र तटों ,गहन वनों और कंदराओं में स्थित सुरम्य
तीर्थ स्थल ,तपोवन सुख-शान्ति दायक तथा प्रकृति की समीपता
में आत्म साक्षात्कार का व्याज रहे |साथ ही आकर्षित करते रहे
अपनी ओर ..जन मानस को ...सहज सुख की तलाश में |
ऐसी ही
व्याकुलता ने मुझे भी गत वर्ष माँ वैष्णों देवी ,श्री
बद्रीनाथ जी एवं श्री केदार नाथ जी के दर्शनों का अवसर दिलाया |भव्य मनोहारी स्वरूप का दर्शन वास्तव में अभिभूत कर देने वाला अनुभव था
जिसे शब्दों में अभिव्यक्त करना संभव ही नहीं है परन्तु चारों ओर फैले वातावरण
ने बहुत कुछ सोचने पर विवश कर दिया |एक साथ इतनी अधिक
संख्या में जनमानस की उपस्थिति तो पर्यावरण को प्रभावित करती ही है साथ ही
विभिन्न स्थानों पर फैलीं पानी की बोतलें ,केन तथा अन्य
दूषित पदार्थ मन को खिन्न कर गए |मार्ग यात्रा को सुगम बना
रहे थे लेकिन धुँआ उड़ाते वाहन और विस्फोटों से गूँजते पहाड़ जैसे कोई चेतावनी दे
रहे थे |स्वाभाविक वन मात्र निषिद्ध क्षेत्र में ही दिखे |...और ..मैं सोचती रही ...कि यदि ऐसा ही रहा तो आने वाली पीढियों के लिए
...परिणाम बहुत सुखकर नहीं होगा |
सत् कार्यों के परिणाम धीरे-धीरे परन्तु भूलों का परिणाम
तुरंत प्राप्त होता है |प्रकृति से छेड़छाड़ की भयंकर भूल का
भयावह परिणाम आज सामने है |आँखे खोले या बंद करें वही दृश्य
दिखाई देते हैं मन गहरे अवसाद और संवेदना से भर जाता है |आज
समय है कि हम स्वयं पर्यावरण के प्रति सचेत हों ,निषिद्ध वस्तुओं यथा पोलीथीन .प्लास्टिक केन्स ,बोतलों
आदि का प्रयोग नहीं करें , यथा संभव वृक्षारोपण करें ,वाहनों का समुचित आवश्यकतानुसार ही प्रयोग करें |सरकारी
तंत्र को समय-समय पर उनके दायित्व का बोध कराएँ; क्योंकि
उनमें भी हम या हमारे परिवार के ही लोग हैं | विकास हो लेकिन
पर्यावरण की कीमत पर नहीं |
उठें ,आगे बढ़ें ,अपने अपने
स्तर पर विपत्तिग्रस्त लोगों की सहायता करें ................और आज के सन्दर्भ में
अंतिम और महत्वपूर्ण कि धार्मिक यात्राओं तथा तीर्थ स्थलों का नैसर्गिक
स्वरुप ..कम से कम कुछ निर्धारित सीमा तक ..बना रहे ,उन्हें
पिकनिक स्थल न बनने दें ..कभी नहीं ।यही हमारी उन दिवंगत आत्माओं तथा
उनके परिजनों के प्रति गहरी संवेदना होगी जो इस भयावह त्रासदी का ग्रास बने ॥
बहुत
संवेदनाओं के साथ ....
ज्योत्स्ना
शर्मा
आपकी यह रचना कल रविवार (23 -06-2013) को ब्लॉग प्रसारण पर लिंक की गई है कृपया पधारें.
ReplyDeleteइस स्नेह ,सम्मान के लिए ह्रदय से आभार !
Deleteसादर
ज्योत्स्ना शर्मा
ज्योत्स्ना जी आपकी यह चिन्ता सही है। प्रकृति का मतलब है उसे उसके स्वरूप में ही रहने देना । तीर्थ स्थान की यात्रा को पर्यटन की तरह इस्तेमाला करन अखतरनाक है। यह पहली चेतावनी है। इसके बाद और अधिक विपत्ति आ सकती है। पेड़ों का कटानऔर चट्टानों के सिर काटना, उनका सीना फोड़ना कोई छोटा गुनाह नहीं है। व्यापार को बढावा देने के लिए और अन्धाधुन्ध कमाई के लिए तीर्थों को निशाना बनाया गया है। प्रकृति के साथ की गई छेड़छाड़ बादलों को भी गुमाराह करती है ।शोषण की जगह प्रकृति -संरक्षण ही एक मात्र उपाय है।
ReplyDeleteमेरे विचारों और भावनाओं का समर्थन करती आपकी प्रतिक्रिया उत्साह वर्धक है मैं इस स्नेहमयी उपस्थिति के लिए बहुत बहुत आभार व्यक्त करती हूँ |
Deleteसादर
ज्योत्स्ना शर्मा
सार्थक रचना , शुभकामनाये
ReplyDeleteShorya Malik ji ..सुखद प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद !
Deleteसादर
ज्योत्स्ना शर्मा
सही समय पर सार्थक प्रस्तुति!
ReplyDeleteबहुत आभार आपका प्रेरक समर्थन के लिए !
Deleteसादर
ज्योत्स्ना शर्मा
रचना पढ़ना बहुत अच्छा लगा
ReplyDeleteनिशब्द हूँ .........
ह्रदय से धन्यवाद ...विभा जी
Deleteडॅा ज्योत्स्ना जी आपका दर्द एकदम सही है और मेरे विचार में इसका मूल कारण कहीं न कहीं हमारी शिक्षा की खराबी ही है क्योंकि इस समय हम जीविकोपार्जन के उद्देशीय मात्र से शिक्षा ले रहें हैं और इसी की अंधी प्रतिस्पर्धा ने हम सबको भौतिकवादी एवं स्वार्थी बना दिया है और इसी अनैतिक इच्छा पूर्ति के लिए हम कुछ भी कर गुजर रहे हैं| परिणाम स्वरुप न केवल प्रकृति में बल्कि हमारे सुन्दर समाज तथा रिश्तों में भी विनाशलीला चल रही है और हमसब इस विनाशलीला को अपने जीवन के हर पहलु में प्रतिदिन भोग भी रहे हैं किन्तु स्वार्थ की इतनी मोटी पट्टी हमारे ज्ञानचक्षुओं पर बंधी कि हम इस विनाशलीला को न तो हम देखना चाहते है और न ही महसूस करना| उदाहरणार्थ परिवार के नाम पर केवल पतिपत्नी बचें हैं और उनके बीच का विश्वास रुपी धागा भी बेहद कमजोर हो चला है| मुझे अपने मातापिता पर यह सब सोचकर बेहद गर्व होता है कि कम पढ़े लिखे होने बाबजूद भी वो प्रकृति और समाज को बेहद संजीदगी से समझते थे तथा अपने चरित्र से उसको संवारने के लिए जीवनपर्यंत प्रयासरत रहे|
ReplyDeleteमेरी भावनाओं के समर्थन के साथ आपकी उपस्थिति बहुत सुखकर है अनिल जी ...और वास्तव में सुन्दर,स्वस्थ वृक्ष पर ही सुन्दर,मधुर फल होते हैं ..आप बहुत बधाई के पात्र हैं ..हार्दिक धन्यवाद !!
Deleteसादर
ज्योत्स्ना शर्मा
ReplyDeleteसुबह सुबह मन प्रसन्न हुआ पढ़कर .......शुभकामनायें ।
एक भी मन को प्रसन्नता दे सके ..यही रचना की सार्थकता है ...मैं उपकृत हुई संजय जी ...बहुत आभार !!
Deleteसादर
ज्योत्स्ना शर्मा