पुनः पढ़िएगा अनिता मंडा जी को ......
- डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
नूर की एक नदी जो बही
तुम्हारी आँखों से मेरी आँखों तक
सींचती हुई कितने ही सपनों को
नित्य नवीन कोंपलें फूटतीं
उग आया एक विशाल बाँस-वन
जुड़ती गई अनुभवों की गाँठें
फैलता गया हरा-भरा सुन्दर उपवन
मेरा प्रश्न नहीं तुमसे कि
क्यों छोड़ दिया तुमने सप्रयास
सींचना सुन्दर बाँस- वन को
क्यों सूखने दिया मेरी सुधियों से
भरे कोमल हृदय को?
नहीं तुमसे कोई प्रश्न;
क्योंकि नहीं ज्ञात मुझे
प्रश्न का कोई अधिकार भी
मेरा है या नहीं?
पर एक प्रार्थना है-
समय के झंझावात से
रगड़ खा सूखे बाँस
न पकड़ पायें आग;
क्योंकि आग करती है विनाश
फिर चाहे हृदय में ही हो।
आग कर देती है राख
स्मृतियों के अवशेष को।
राख की कालिख़ में
नहीं उपजती नवीनताएँ।
वक़्त की तपिश से सूख
समाप्त हो गया है हरापन
रस की एक-एक बूँद
सूख समा गई है
उसके खोल में।
अंदर से भी दिखाई पड़ता है
खोखला।
पर निरर्थक नहीं है
उसका खोखलापन।
उसके आवरण ने पीया है
रस इसीलिए शायद
उससे निकलने वाले
स्वर हैं रसमय।
एक आस बाकी है
जैसे बाँस के हृदय छिद्रों से
निकलने वाले स्वर
करते हैं संसार को आनंदित
तुम भी स्वयं को वैसा ही बनाना।
पर ध्यान रहे सूखे बाँस के
फाँस भी होती है
चुभे तो सिहरन फैल जाती है
हृदय को चीरती हुई
एड़ी से चोटी तक।
तुम कभी फाँस मत बनना
इस प्रार्थना का अधिकार
कभी नहीं छुटेगा मुझसे।
तुम्हारी आँखों से मेरी आँखों तक
सींचती हुई कितने ही सपनों को
नित्य नवीन कोंपलें फूटतीं
उग आया एक विशाल बाँस-वन
जुड़ती गई अनुभवों की गाँठें
फैलता गया हरा-भरा सुन्दर उपवन
मेरा प्रश्न नहीं तुमसे कि
क्यों छोड़ दिया तुमने सप्रयास
सींचना सुन्दर बाँस- वन को
क्यों सूखने दिया मेरी सुधियों से
भरे कोमल हृदय को?
नहीं तुमसे कोई प्रश्न;
क्योंकि नहीं ज्ञात मुझे
प्रश्न का कोई अधिकार भी
मेरा है या नहीं?
पर एक प्रार्थना है-
समय के झंझावात से
रगड़ खा सूखे बाँस
न पकड़ पायें आग;
क्योंकि आग करती है विनाश
फिर चाहे हृदय में ही हो।
आग कर देती है राख
स्मृतियों के अवशेष को।
राख की कालिख़ में
नहीं उपजती नवीनताएँ।
वक़्त की तपिश से सूख
समाप्त हो गया है हरापन
रस की एक-एक बूँद
सूख समा गई है
उसके खोल में।
अंदर से भी दिखाई पड़ता है
खोखला।
पर निरर्थक नहीं है
उसका खोखलापन।
उसके आवरण ने पीया है
रस इसीलिए शायद
उससे निकलने वाले
स्वर हैं रसमय।
एक आस बाकी है
जैसे बाँस के हृदय छिद्रों से
निकलने वाले स्वर
करते हैं संसार को आनंदित
तुम भी स्वयं को वैसा ही बनाना।
पर ध्यान रहे सूखे बाँस के
फाँस भी होती है
चुभे तो सिहरन फैल जाती है
हृदय को चीरती हुई
एड़ी से चोटी तक।
तुम कभी फाँस मत बनना
इस प्रार्थना का अधिकार
कभी नहीं छुटेगा मुझसे।
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आदरणीया ज्योत्स्ना जी आपका बहुत आभार मेरी रचना को यहां स्थान देने के लिये।
ReplyDeleteअनिता मण्डा की कवित बाँस उपवन भव-प्रवण है. मन के भीतरी कोनों क अवगाहन करती हुई. बहुत गहरी छू लेने वाली अभिव्यक्ति के साथ चिन्तन को भी उद्वेलित कर देती है
ReplyDeleteआपने मेरा उत्साह बढ़ाया है।हार्दिक आभार।
Deleteरोम रोम को छू लिया इस रचना ने | बधाई अनिता जी और धन्यवाद ज्योति जी |
ReplyDeleteहार्दिक आभार।
DeleteSach men rachna ki gahanta kamal ki hai bahut achhi lagi rachna prerna bhari bahut bahut badhi...
ReplyDeleteहार्दिक आभार।
Deleteanita ji k i rachana manav - man ko bahut gahara sandesh deti ek sunder rachna hai jyotsna ji va anita ji ap dono ko badhai.
ReplyDeletepushpa mehra.
हार्दिक आभार।
Deleteहार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ !!
ReplyDeleteहार्दिक आभार।
Deleteरसपूर्ण हृदय की रस भरी कविता ।प्रेम भाव से ओत प्रोत है यह । एवम् गहरे चिन्तन से भरी हुई ।अनिता मंडा जी हार्दिक वधाई ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार
Deleteमन को छू लेने वाली रचना है ये...अनीता जी को उनके ऐसे सशक्त लेखन के लिए मेरी बहुत बधाई...|
ReplyDeleteहार्दिक आभार
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