छाया है कोहरा घना
मन है अनमना !
चमकीं हैंं लाइटें
गाड़ियों का शोर है
जाने दुपहरिया है ?
साँझ है कि भोर है ?
धुंध का वितान-सा तना
मन है अनमना !
देखो नज़दीकियाँ भी
आज हुईं ओझल
सँझा को सांसे भी
लगतीं हैं बोझल
मौसम भी दे यातना
मन है अनमना !
धीरे-धीरे घट जाए
फिर दिन की पीर
एक किरन आ जाए
कुहरे को चीर
इतनी सी है चाहना
न रहे अनमना !
छाया है कोहरा घना
मन है अनमना ।।
मन है अनमना !
चमकीं हैंं लाइटें
गाड़ियों का शोर है
जाने दुपहरिया है ?
साँझ है कि भोर है ?
धुंध का वितान-सा तना
मन है अनमना !
देखो नज़दीकियाँ भी
आज हुईं ओझल
सँझा को सांसे भी
लगतीं हैं बोझल
मौसम भी दे यातना
मन है अनमना !
धीरे-धीरे घट जाए
फिर दिन की पीर
एक किरन आ जाए
कुहरे को चीर
इतनी सी है चाहना
न रहे अनमना !
छाया है कोहरा घना
मन है अनमना ।।
डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
ReplyDeleteधीरे-धीरे घट जाए
फिर दिन की पीर
एक किरन आ जाए
कुहरे को चीर
इतनी सी है चाहना
न रहे अनमना !
बहुत अच्छी रचना।
ReplyDeleteपाखियों की
चहचहाहट
उघँती,उबासियाँ
ओस में डूबी
सुबह को होश आये
धुंध की परतें हटें
भ्रम के कुंठित
जाल टूटे।
------
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २७ दिसम्बर २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
सुंदर सुहानी सुबह
ReplyDeleteसादर वंदन