Tuesday, 28 May 2019

142 -‘काला पानी’ और सावरकर




प्रखर राष्ट्रवाद के पोषक स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर का साहित्य मराठी भाषा का ही नहीं अपितु भारतीय साहित्य की अनुपम निधि है | 28 मई, 1883 को महाराष्ट्र की मेदिनी (नासिक जिले के भगुर ग्राम) को अपने जन्म से अलंकृत करने वाले सावरकर का रचना संसार  ‘मेजिनी का चरित्र’ से कमला , विरहोच्छ्वास , हिंदुत्व , उः श्राप ,उत्तर क्रिया , मोपलों का विद्रोह ,गोमान्तक , मुझे इससे क्या?, मेरा आजीवन कारावास 1857 का स्वातंत्र्य समर , काला पानी तथा अन्य भी अनेक काव्य , लेख , कथा , आत्मचरित्र, उपन्यास जैसी विविध विधाओं में रचित पुस्तकों के रूप में बहुत विस्तृत है | सावरकर की रचनाएँ उनके केवल क्रांतिकारी ही नहीं अपितु श्रेष्ठ लेखक , चिन्तक , समाज सुधारक ,  ओजस्वी व्यक्तित्त्व की परिचायक हैं , मात्र अंग्रेजों की दासता से ही नहीं वरन समाज की घोर अनर्थकारी ,सड़ी-गली मान्यताओं के विरुद्ध संघर्ष का बिगुलनाद करती हैं | ब्रिटिश सरकार द्वारा दो बार आजन्म कारावास की सजा प्राप्त ,अंदमान की काल-कोठरी के भयावह संसार में, माँ भारती के चरणों में अपना सर्वस्व समर्पित करने वाले सपूत के द्वारा कीलों, काँटों ,नाखूनों से सृजित साहित्य का स्वर पूरे भारत वर्ष में गूँजना ही चाहिए |

सन 1857 की पचासवीं वर्षगांठ को ब्रिटेन के द्वारा विजय-दिवस के रूप में मनाए जाने से उद्वेलित सावरकर द्वारा  सघन खोज कर लिखी  ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ पुस्तक प्रकाशन से पूर्व ही तत्कालीन सरकार द्वारा जब्त किए जाने से उसके  तेवर को कहती है तो विवेच्य ‘काला पानी’ उपन्यास सावरकर के अंदमान बंदीगृह में अनुभूत सत्यों के साथ-साथ तत्कालीन सामाजिक सन्दर्भों को यथा तथ्य रूप में उद्घाटित करने से विशिष्ट है | अंदमान की सिहरा देने वाली त्रासद गाथा , बंदीगृह में दी जाने वाली क्रूर यातनाएँ ,भंयकर कैदियों के आचरण के साथ-साथ अन्य देखे-सुने तथ्यों को भी कथानक में पिरोया गया है | सर्वप्रथम अगस्त ,सन1936 से ‘मनोहर’ पत्रिका में इसके धारावाहिक प्रकाशन तथा सन 1937 में प्रथम संस्करण के प्रकाशन का उल्लेख सन 2013 में प्रकाशित संस्करण के आमुख में बाल सावरकर ने किया है | वहीं उन्होंने यह तथ्य भी रखा कि उपन्यास की कथा वस्तु निरी कल्पित न होकर मिलते-जुलते नामों के साथ वास्तविक घटनाक्रम पर आधारित है | (का.पा. आमुख ,पृ. 5)

उपन्यास के कलेवर को घटना चक्र का संकेत देते शीर्षक के साथ 22 प्रकरणों में विभक्त किया गया है | ‘मालती’ से ‘भाई बहन का मिलाप’ तक विस्तारित कथानक का प्रारम्भ पितृ विहीना किशोरी मालती और उसकी माता रमा देवी के सुन्दर, रुचिर वार्तालाप से होता है | यहीं फ़ौज में गए रमा देवी के पुत्र का लापता होना और सहज धार्मिक प्रवृत्ति वश दोनों माता-पुत्री का स्वामी योगानंद के सत्संग हेतु मथुरा प्रवास भी ज्ञात होता है | मालती के गायब होने , स्वामी योगानंद के कालेपानी के भगोड़े रफीउद्दीन के रूप में गिरफ्तार होने ,मालती के गुलाम हुसैन के शिकंजे में फँसने की मन को झकझोर देने वाली घटनाओं से रूबरू कराता उपन्यास सरल हृदय किशन की सहायता से मालती द्वारा गुलाम हुसैन की हत्या जैसी परिस्थितियों पर आ खड़ा होता है | मालती-किशन की गिरफ्तारी और कालेपानी की सजा के साथ उनका अंदमान का चालान कथानक को गति प्रदान करते हैं | अन्य बंदियों के साथ अंदमान की यात्रा , वहां के आदिवासी जन , बंदीगृह और वहाँ के लोग , मालती और किशन का स्त्री-पुरुष के निमित्त बने अलग-अलग बंदीगृह में निवास , अंदमान की सामाजिक व्यवस्था की ओर इंगित करती कथा दोनों के रफीउद्दीन से प्रतिशोध ,बन्दीगृह से पलायन और मालती के अपने खोए हुए भाई से मिलन तक पहुँचाती है |

वस्तुतः ‘काला पानी’  उपन्यासकार के अनुभूत सत्यों का जीवंत दस्तावेज है | यही कारण है कि नाम मात्र के उलटफेर के साथ चित्रित पात्र भी प्रायः वास्तविक रूप में ही उपस्थित किए गए हैं | किशोरी सुन्दर, कोमलांगी मालती , उसकी माता रमा देवी , अन्नपूर्णा देवी , नन्ही उषा और अनुसूया आदि स्त्री पात्रों को उनकी सम्पूर्ण स्त्रियोचित विशेषताओं के साथ प्रस्तुत किया गया है | दूसरी ओर पुरुष-पात्रों में समाज में विद्यमान विविध प्रकृति के चरित्र साकार हुए हैं | कुटिल योगानंद उर्फ़ रफीउद्दीन , किशन , गुलाम हुसैन , हसन , बन्दीपाल , हवलदार , जमादार के चित्र-विचित्र चरित्रों के साथ-साथ आजन्म कारावास भोग रहे  सन 1857 के स्वातंत्र्य समर के वीर पुंगव तात्या टोपे की सेना के योद्धा वृद्ध अप्पा जी का पराक्रमी चरित्र बड़े प्रभावी रूप में चित्रित है | जिनका जय-मन्त्र है –
“ जय-पराजय का यदि किसी से वास्ता है तो वह पराक्रम से है न कि न्याय से | याद रखो | रट लो यह शब्द पराक्रम | जय मन्त्र |” (का.पा., पृ . 167) स्वाभाविक अच्छाइयों-बुराइयों के साथ तमाम चरित्र पाठक के मन-मस्तिष्क पर अपनी अमिट छाप छोड़ने में समर्थ हैं |
सावरकर ने कथानक के माध्यम से तत्कालीन समाज की मनोदशा ही नहीं वेश, परिवेश , स्थानों का वर्णन भी बहुत सजीवता से किया है | काशी की विजन संध्या बेला में शांत बहती भागीरथी का भाषागत सौन्दर्य से परिपूर्ण चित्र देखिए-                                                                                                                                                                 
“जिस तरह कोई महारानी दिन भर राज सभा स्थित सामंत, नृपतियों ,सेनापतियों, प्रधान मंडलों के मान-सम्मानों को राजसी शान से  स्वीकारते-स्वीकारते संध्या तक थकी-हारी अपने अन्तःपुर में आती है ,केश संभार मुक्त करती है , दप दप दमकते अलंकार ,जगर-मगर करती वेशभूषा उतारकर बहुत ही साधारण सी धोती-चोली पहनती है ,फिर एकांत उद्यान में निश्छलता के साथ फुलवारियों में स्वच्छंद विहार करती है ,पल में मंचक पर लेटती है , उसी तरह भागीरथी काशी नगरी के सार्वजनिक घाटों पर लाखों भक्तगणों ,राजा-महाराजाओं ,सैनिकों ,पुरोहितों,पंडों के पूजा-पुरस्कारों के टीम-टाम,ठाठ-बाट को स्वीकारती हुई अब साँझ की बेला में इस एकांत विजन स्थल पर स्वच्छन्दतापूर्वक लहर-लहर बह रही थी |” (का.पा., पृ.67)

यद्यपि अंदमान के विषय में लेखक का कथन है –“इस विश्व में आज भी भूमि के कुछ ऐसे अंश हैं जहाँ का भूगोल है,पर इतिहास नहीं | आज जिसे काला पानी कहा जाता है ,अंदमान का वह द्वीप-पुंज भी इसी भूभाग में गिना जाना चाहिए|” तथापि उपन्यास के पृ.121 से 133 तक प्रकरण 11 में लेखक ने अंदमान , वहां के निवासियों , वनस्पतियों एवं जीव-जंतुओं पर पर्याप्त शोधपरक विवेचन प्रस्तुत किया है | ‘उपनिवेशीय सिंद्धांत’ में वहां के जंगल तथा उद्यानों में केलि करते रंग-बिरंगे,सुन्दर-सलोने पक्षियों का मनोरम चित्रण है |(का.प्., पृ.187 ) अंदमान की जनजाति जावरों और उनके रहन-सहन पर भी पर्याप्त जानकारी उपलब्ध है |(का.पा.,पृ.217 से.. )

वस्तुतः इतिवृत्त के माध्यम से उपन्यासकार ने तत्कालीन सामाजिक संदर्भो को रेखांकित करते हुए समाज में व्याप्त पाखंडों ,कुरीतियों पर भी प्रहार किया है | धार्मिक अंधविश्वास की पराकाष्ठा और उसके दुष्परिणाम को लेखक ने रफीउद्दीन के साथी किशन और हसन की स्वीकारोक्ति के माध्यम से कहा है | (का.पा. , पृ.53-62) सावरकर का राष्ट्रवाद तमाम धार्मिक आस्थाओं ,मान्यताओं के पालन के साथ-साथ पूर्णतः सजग, सशक्त समाज के निर्माण का सन्देश देता है | प्रकरण-6 ‘रफीउद्दीन का अंतरंग’ में अदालत में उन डाकुओं के मुकदमे की सुनवाई के सन्दर्भ का उल्लेख करते हुए सावरकर कहते हैं – “ जिसे हम मानवता ,मनुष्यता कहते हैं वह एक सजी-संवरी क्वेट्टा नगरी है | उसके नीचे भूचालीय राक्षसी वृत्तियों की कई परतें फैली हुई हैं | मात्र दया ,दाक्षिण्य ,माया-ममता, न्याय-अन्याय की नींव पर ही यह मानवता की क्वेट्टा नगरी उभारी जाने के कारण ,इस भरम में कि वह अटल –स्थिर –दृढ़ होनी चाहिए , जो लापरवाही से घोड़े बेचकर सोता है उसका सहसा ही विनाश होता है ,पूरा राष्ट्र पलट जाता है |”(का.पा., पृ.52) सावरकर के अनुसार पतितोद्धार, उनका सुधार आदि कार्य राष्ट्रीय अथवा धार्मिक सेवा के ही उपांग हैं |(का.पा., पृ.190) उपन्यासकार ने मानव में स्वाभाविक रूप से विद्यमान मानवता के उन्नयन और दानवता के दमन के लिए दया और दण्ड के औचित्य को प्रतिपादित किया (का.पा. , पृ.96,पं-25-26) अप्पा जी और कंटक के वार्तालाप के द्वारा उपन्यासकार धर्मान्धता , जातिगत भेदभाव पर न केवल प्रहार करते हैं अपितु इनके उन्मूलन, एक हिंदी मातृभाषा की स्वीकृति ,विधिवत चिकित्सालय,मंदिर,विद्यालय के निर्माण हेतु आग्रह करते दिखाई देते हैं | सामरिक दृष्टि से अंदमान के महत्त्व को सावरकर की दूर दृष्टि ने कितना पहले ही पहचान लिया था | (का.पा., पृ.197)

बंदीगृह के कर्मचारियों के आचरण के माध्यम से तत्कालीन समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार को भी सावरकर की सजग लेखनी ने अनावृत्त किया है | रफीउद्दीन गले की खांच में सोने के सिक्के छिपा कर कारागृह की  दुर्दांत अपराधियों का ले-देकर अपने लिए समस्त सुविधाएं जुटा लेना, काला पानी जैसे दण्ड से भाग जाना तब भी संभव हो सका था , और आश्चर्य है ,आज भी संभव है | ऐसी सामाजिक अव्यवस्था के दुष्परिणाम सर्वथा निर्दोष सामान्य जनों को भी ,या कहिए सामान्य जनों को ही भुगतने पड़ते हैं | लेखक के अनुसार - “ मनुष्य केवल अपने ही अनुशासन का, पाप-पुण्य का तथा कर्माकर्म का फल नहीं भोगता | इस प्रत्यक्ष जगत में उसे समाज के पाप-पुण्य का और कर्माकर्म का फल इच्छा न होते हुए भी भोगना पड़ता है | उसे दूसरों के कृत्यों का फल ठीक उसी तरह भोगना पड़ता है जैसे ताऊन (प्लेग) संक्रामक ,छूत की बीमारी में सिर्फ वातावरणीय संसर्ग से स्वस्थ आदमी को भी उस रोग का कष्ट भोगना पड़ता है |”(का.पा., पृ.90)

सामाजिक व्यवस्था की विडम्बना पर लेखक चकित हैं | नर-पशु, अत्याचारी गुलाम हुसैन की हत्या पर दोषी सिद्ध हुए मालती और किशन के प्रति उनका दृष्टिकोण बहुत कुछ कहने में समर्थ है – “समाज की पीड़ा , अत्याचारों का जो विध्वंस करता है ,वही कभी-कभी समाज-पीडक अत्याचारी के रूप में दण्डित होता है | नीति-नियमों के असली अनुशासन का पालन करना ही अपराध सिद्ध हो जाता है और उसके लिए उसे अनुशासन हीनता का फल भुगतना पड़ता है |” (का.पा., पृ.91) व्यक्तिगत मान-सम्मान से परे अखण्ड राष्ट्रवाद के निमित्त अपने जीवन को समर्पित करने वाले ऐसे योद्धाओं को अपना आदर्श बनाकर किया गया प्रयास ही राष्ट्र-हित में सार्थक प्रयास होगा | उपन्यास काल की भाँति धर्मान्धता, पाखण्ड, अशिक्षा , भ्रष्टाचार ,लोभ और घात-प्रतिघात का गहरा, काला ,संकटों का अथाह सागर, काला सागर  आज भी जस-का-तस विद्यमान है ,तो भी  ‘काला पानी’ में गहरे उतर समाधान के मोती पाना असंभव भी नहीं है !

 अनिल कुमार शर्मा





Wednesday, 6 February 2019

141- मन का इकतारा !

डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा


जाने के बाद
करती रहीं यादें
मुझको याद।1

सबको भाते
सोते हुए,ख्वाब में-
मुस्काते बच्चे ।2

मत उठाना
अँगुली किसी ओर
टूटना तय ।3

कमी तो न थी
फिर भी सहेजे हैं
तेरे भी गम ।4

चलते रहे
मूँदकर आखों को
वही सही था ।5

वो कहाँ रुका
लगता था ऐसा,कि-
गगन झुका ।6


उड़ता पंछी
ताक लगाए बाज
बैठा शिकारी।7

सूरज आया
आँगन किलकता
हँसते फूल।8

अनोखे किस्से
छुपाए हुए बैठी
अँधेरी रात ।9

कैसा गुरूर
शीशे का यह घर
होना है चूर ।10
  
गाता ही रहे
मन का इकतारा
गीत तुम्हारा।11

धुंधली हुईं
कुहासे में किरणें
वक्त की चाल ।12


-०-०-०-०-०-०-

(चित्र गूगल से साभार) 

Friday, 26 October 2018

139-तुमसे उजियारा है !







                                    तुमसे उजियारा है
                                  

साहित्य आत्मिक ऊर्जा का ऐसा पुंज है जो प्रकट होकर सर्वथा मंगल का सृजन करता है | यह विविध धाराओं में प्रवाहित होता हुआ समस्त मनोमालिन्य को मिटाकर सबको उद्भासित करने की सामर्थ्य रखता है | अब इस ऊर्जा के बिंदु परस्पर संयोजित हों अथवा ऐसे ही छिन्न-भिन्न अवस्था में दबकर रह जाएँ यह तत्कालीन परिवेश एवं परिस्थितियों पर निर्भर करता है | इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि जिस प्रकार सृष्टि-प्रक्रिया में सुप्तावस्था में पड़े सृजन के बीज द्विध गति को प्राप्त होते हैं ,कुछ समय की गति के साथ विनष्ट होकर मिट्टी से एकाकार हो जाते हैं , कुछ अनुकूलन प्राप्त कर अंकुरित हो पल्लवित , पुष्पित हो जाते हैं | बस ऎसी ही स्थिति सुप्त पड़े ऊर्जा-बिन्दुओं अथवा भाव-बीजों की है |

मेरी मनोभूमि में भी कुछ ऐसे ही सुप्त पड़े बीज अंकुरित हुए | उ.प्र. के मेरठ जनपद की ‘नाथूराम पांडे’ की गली में पंजाबी परिवार के साथ निवास ने पंजाबी लोकसंस्कृति से परिचय कराया , खिला-खिला मस्ती भरा जीवन | यही कोई सात-आठ वर्ष की वयस रही होगी मेरी लेकिन माता जी ( पंजाबी परिवार की दादी माँ ) के साथ रोज़ शाम को मंदिर में आरती में बैठना , सामने वाले घर में ‘सांझी’, ‘फुलैरा दूज’ और ‘टप्पे’ आज भी जैसे चित्रांकित हैं मेरी स्मृतियों में | इनमें से ‘बागाँ विच आया करो ..’ सुर, ताल , लय के साथ जस का तस विद्यमान रहा |

बिजनौर आगमन , अध्ययन , अध्यापन और उसके भी कितने समयोपरांत पुनः लेखन में प्रवृत्त हुई तो दोहा , कुण्डलिया , हाइकु आदि विधाओं के साथ एक छंद और उतरा , माँ शारदे की वंदना में लिखा –
‘माँ, रुत वासंती है / चरणों में हमको / ले लो ये विनती है |
यहीं से इस यात्रा का शुभारंभ हुआ | मधुर , गेय इस छंद के शिल्प आदि के विषय में अधिक जानकारी नहीं थी , अस्तु , वहीं गई जहाँ मुझे अपनी ऎसी सभी समस्याओं का समाधान मिलता रहा है , आदरणीय भाई रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जी के पास | उनसे ही जाना कि ‘विशेषतः पंजाबी लोकगीत का ही एक प्रकार यह- द्विकल में 12-10-12 मात्राओं के साथ तीन चरण वाला माहिया छंद है ,जिसका पहला-तीसरा चरण तुकांत हो | यह पहले प्रायः पंजाबी में और अब हिन्दी एवं अन्य भाषाओं में भी प्रचुरता से रचा जा रहा है |’ बृहत् हिन्दी कोष ने ‘माहिया’ का अर्थ प्रिय या प्रियतम कहा तथा इसे ऐसा पंजाबी गान बताया जिसमें करुण या शृंगार रस की प्रधानता रहती है | ‘हिन्दी साहित्य कोश’ की पारिभाषिक शब्दावली में भी इसे करुण  अथवा शृंगार रस से और शृंगार में भी विरह पक्ष की मार्मिक अनुभूति से आप्लावित पंजाब के प्रसिद्ध लोकगीत के रूप में ही परिभाषित किया गया है |

उपरांत मेरा ‘माहिया छंद’ का विधिवत लेखन प्रारम्भ हुआ | आ. काम्बोज जी एवं डॉ. हरदीप सन्धु जी के संयुक्त संपादन में त्रिवेणी http://trivenni.blogspot.in/  पर 4 मई , 2012 को हरदीप जी के तथा 6 मई , 2012 को सर्वप्रथम मेरे माहिया प्रकाशित हुए | संपादक द्वय के सत्प्रयासों से आदरणीया डॉ. सुधा गुप्ता सहित सशक्त रचनाकारों के प्रभावी माहिया छंद त्रिवेणी ब्लॉग पर समय-समय पर प्रकाशित होते रहे | जिसकी परिणति आदरणीय रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ , डॉ. भावना कुँअर , डॉ. हरदीप सन्धु के सम्पादन एवं डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा के संयोजन में प्रकाशित माहिया-संग्रह ‘पीर भरा दरिया’ के रूप में हुई | अनुपमा त्रिपाठी जी ने डॉ. सुधा गुप्ता , डॉ. भावना एवं रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जी के साथ मेरे भी माहिया को स्वर दिया जो यू-ट्यूब पर सुने जा सकते हैं |
‘पीर भरा दरिया’ के सम्पादकीय में ‘बालो-माहिया’ की किंवदंती सहित माहिया के शिल्प विधान पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है | सम्पादक त्रय ने शृंगार के वियोग-संयोग को माहिया का अंगीरस मानते हुए भी अब अन्य रसों की उपस्थिति को स्वीकार कर प्रकारांतर से माहिया की विषय-वस्तु को विशदता प्रदान की है  | किसी भी समाज में लोकगीत समय की प्रतिध्वनि हैं | आज़ादी की लड़ाई में जन-जन की हुंकार बने गीत हों अथवा आर्यसमाज के सम्मेलनों में समाज की कुरीतियों पर प्रहार करते गीत यहाँ तक कि घरों में उत्सवों पर महिलाओं द्वारा गाये जाने वाले गीतों में भी तत्कालीन परिस्थितियाँ झलकती हैं | तदनुरूप प्रायः प्रेमी-प्रेमिका के रूठने-मनाने, विरह-मिलन, चुहल से ओत-प्रोत माहिया ने भी विस्तार पाया और ग़ज़ल की भाँति ही माहिया भी ‘विषय-बाध्यता’ की परिधि से बाहर निकल आया | अनेक रचनाकारों ने आधुनिक संदर्भो को माहिया की विषय-वस्तु के रूप में चुन प्रासंगिक रचनाधर्मिता का परिचय दिया |

‘तुमसे उजियारा है’ के माहिया भी जीवन के विविध पक्षों को स्पर्श करते हैं | समय की , समाज की ध्वनि है इनमें | जैसे-जैसे ,जो भी घटित होता रहा मेरी लेखनी का विषय बनता रहा और वह माहिया त्रिवेणी अथवा अन्य पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी होते रहे , किसी न किसी शीर्षक के साथ | इस प्रकार 21 शीर्षकों में रचित माहिया पुस्तक के रूप में आबद्ध होकर आपके सम्मुख हैं | कुछ इनके विषय में कहना चाहूँगी –
प्रारम्भ में ‘तुमसे उजियारा है’ , ‘सोने सी निखर गई’ , ‘है रात नशीली सी’ और ‘खोलो वातायन’ के माहिया प्रथम दृष्टया प्रेमपरक मधुर भावनाओं से भरे माहिया ही प्रतीत होते हैं , हैं भी ,उनमें मिलन का आह्लाद है तो विरह की वेदना भी है | परन्तु कई स्थलों पर ये माहिया लौकिक से अलौकिक की यात्रा तय करते हैं यथा-
‘सोने सी निखर गई / नाम लिया तेरा / सिमटी , फिर बिखर गई’ में विरह की पीड़ा में सोने सा निखर कर निकलना और नाम स्मरण मात्र से सयंम खो देने का मुग्ध भाव है | तो दूसरी ओर खुद को खोकर ही प्रिय को पाना आत्मा-परमात्मा के एकीभाव को संकेतित करता है –
कैसी ये माया है / खोया है खुद को / फिर तुझको पाया है |
दूसरी ओर ‘हक हमको पाने हैं / इतना याद रहे / /कुछ फ़र्ज़ निभाने हैं ‘ और ‘ टुकड़ों का मोल नहीं / माँ-बाबा खातिर / दो मीठे बोल नहीं |, , नैनों में सपने हैं / दुर्दिन कह जाएँ / कब ? कितने ? अपने हैं |’ जैसे माहिया कर्तव्यबोध जाग्रत करते तथा जीवन के कटुसत्य को उद्घाटित करते माहिया हैं |
‘कल भीग गए नैना / चाहा था उड़ना / खामोश हुई मैना” में समय के दायरों , प्रतिबंधो से बाहर निकलती स्त्री की चुनौतियों और पीड़ाओं को कहा गया है | नितप्रति समाचारों में सुनाई पड़ती ऎसी घटनाओं की परिणति है यह माहिया | ऐसे ही कवि की कविताओं और कठोर शिलाओं से फूटी जल-धाराओं को मेरी दृष्टि से देखिए-
जग दरिया लाख कहे / जान गई मैं तो / पर्वत की पीर बहे’ .... माहिया संवेदनशील हृदय की काव्यात्मक  अभिव्यक्ति के साथ पर्यावरण के प्रति हमारी असंवेदनशीलता की ओर संकेत करता है | ऐसा लगता है कविता में समाज की पीड़ा और नदी के रूप में तथाकथित विकास के नाम पर अनवरत बारूदी विस्फोट और चोट झेलते पर्वतों की पीड़ा ही उमड़-उमड़ कर बह रही हो |

‘ये ,रुत वासंती है’ शीर्षक के माहिया भक्ति भाव से परिपूर्ण माँ सरस्वती और कृष्ण के प्रति श्रद्धा भाव भरे माहिया है | माँ शारदे सदैव चरणों में स्थान दें , न केवल मेरे अपितु समस्त प्राणियों पर माँ का दया भाव हो – ‘सुख-दुःख में साथ रहे / सबके शीश सदा / माँ तेरा हाथ रहे |’ कान्हा जी का अनुपम चित्र-चरित्र कहते माहिया में मुझे प्रिय है – जादूगर कैसे हो / जो जिस भाव भजे / उसको तुम वैसे हो’ निःसंदेह इसे रचते समय गोपिकावल्लभ योगीराज श्रीकृष्ण के विविध चरित्र मेरी लेखनी के हृदय में विद्यमान रहे | प्रेम से स्मरण करते भक्तों के लिए भक्त-वत्सल कृष्ण और द्वेषभाव से स्मरण करते दुराचारियों कंस आदि के प्रति उनके विनाशक कृष्ण | ‘जल दीप उजाला हो’ में प्रभु से निर्धन का धन बनने का निवेदन और हर मन का दीप जल उठे ऐसी दीपावली की प्रार्थना है –
सुनते ना, कित गुम हो / अर्ज़ यही भगवन / निर्धन के धन तुम हो |
दिन-रैन उजाला हो / दीप यहाँ मन का / मिल सबने बाला हो |

‘पाहन पर फूल खिले’ विविध भावभरे माहिया हैं | ‘जीवन तो होम किया / पर जिद ने मेरी / पत्थर को मोम किया’ से शुरू इस धारा में किसी भी कार्य को सिद्ध करने के लिए एक धुन , एक जूनून का सन्देश देते इस माहिया के साथ पत्थर को विषय बनाकर रचे कई माहिया हैं | विषय से इतर इस शीर्षक के दो माहिया उस वक्त घटी एक घटना की ओर संकेत करते हैं – मिड डे मील खाकर लगभग चालीस बच्चों के प्राण संकट में आ गए , सारा दिन वही समाचार देखती रही और ईश्वर से उनकी कुशलता की प्रार्थना करती रही | आक्रोश भी रहा , जिन कलियों को संभालना है उनके प्रति इतनी लापरवाही कैसे हो सकती है , और माहिया बने –
क्या फूल यहाँ महकें / जहर हवाओं में / पंछी कैसे चहकें |
ये रात बहुत काली / है कितना गाफिल / इस बगिया का माली |

‘हिन्दी इक डोर हुई’  हिन्दी को समर्पित मेरी भावांजलि है और ‘राखी पे बलिहारी’ रक्षाबंधन के पावन पर्व पर भाई और परिवार के प्रति शुभकामनाएँ हैं | हिन्दी का परचम सदा ऊँचा रहे ,देश-विदेश में मेरी हिन्दी मान पाए ऎसी मेरी कामना है –
बढ़कर , ना ठहरेगा / हिन्दी का परचम / ऊँचा ही फहरेगा |
राखी पे बलिहारी / फूलों से महके / भैया की फुलवारी |

जय उन वीरों की’ देशप्रेम से परिपूरित ऎसी भावनाओं की अभिव्यक्ति है जो मुझे सदैव भावविह्वल करती हैं | तिरंगे के रंगों में रँगा मन वीरों की हुंकारों से गर्व से भर जाता है | भारतमाता की जय-जयकार से गुंजित गगन में गद्दारों की आवाज़ भला क्यों सुनाई दे ?- जैसे भाव लिए माहिया तो मेरे प्रिय हैं ही लेकिन विशेष है वीर शहीदों से सपने में हुआ वार्तालाप – जो वास्तव में सेना के शहीद मेजर की पत्नी के पति की वीरगति के उपरान्त व्यवहार पर आधारित है | जिसने पूरी निष्ठा से पति के स्थान पर भारतीय सेना को अपनी सेवाएँ समर्पित कीं , उस वीरांगना की हिम्मत और समर्पण सभी टी.वी. चैनलों पर चर्चा का विषय रही | मेरे माहियाओं में जैसे वही शहीद स्वप्न में अपना सन्देश परिवार तक पहुँचाने का निवेदन करता है | उसका माता-पिता , बहन , भाई के प्रति सन्देश तो मार्मिक है ही लेकिन प्रिया को दिया गया सन्देश और उसका प्रत्युत्तर बेहद मर्मस्पर्शी है, जिसमें वह अपनी प्रेयसी से दूसरा विवाह करने का आग्रह करता है | पत्नी का उत्तर देखिए-
कैसे कायर माना / क्यों मनमीत कहो / मुझको ना पहचाना |
पीछे तो आना था / नन्हे को लेकिन / फौलाद बनाना था |
मैं वचन निभाऊँगी / माँ-बाबा मेरे / हर सुख पहुँचाऊँगी |
पक्की है नींव बड़ी / सुन लेना प्यारी / सरहद पर आन लड़ी | ....... कर्तव्यनिष्ठा , देशप्रेम और समर्पण की ऐसी सच्ची गाथा कि इसे लिखते-पढ़ते कितनी बार रोई हूँ |

‘माँ के चरणों में’ माँ के प्रति मन की कोमल भावनाओं का ज्वार है जो कभी उतरता ही नहीं | हर दुःख , हर पीड़ा के मरहम-सी , हर सुख , हर लक्ष्य , हर सपने की सहयात्री बन माँ ही तो थामे रखती है इनकी डोर | व्यसनों से मोड़ती और टूटते रिश्तों को जोड़ती माँ जैसे हर रिश्ते की खिड़की है ,शेष द्वार बंद भी हो जाएँ पर यह खिड़की सदैव खुली रहती है | चोटी गूँथते कितनी बतियाती थी क्या-क्या सिखाती रही क्या कभी भूला जा सकता है , वही पहली शिक्षक ,वही सखी , वही पहला प्यार , तभी तो कहा-
करती आराम नहीं / माँ तुझसा प्यारा / दूजा है नाम नहीं |

‘ये रुत बौराई है’ , ‘नैना मतवारे’ , और ‘झूम उठी बगिया’ में जैसा कि इनके शीर्षक ही कहते है -सहज मस्ती भरा जीवन और उमंगों-उम्मीदों के रंगों से सजे माहिया तो हैं ही, साथ ही स्त्री-मन की जिजीविषा और दृढ संकल्पों की झलक दिखाई देती है ,तमाम वर्जनाओं से लड़ती –टकराती ,अपनी ऊर्जा-ऊष्मा को कायम रख अपनी राह निकालती स्त्री इन माहियाओं में दिखाई पड़ती है , इन संभागों में वही मेरे प्रिय माहिया हैं –
फागुन क्या बोल रहा / एक नशा मस्ती / कण-कण में घोल रहा |
हर वार करारा है / ढूँढ़ कहीं दिल में / आबाद शरारा है |
अनुभव ने सिखलाया / चन्दन थे, जग ने / विषधर बन दिखलाया |

रचना क्या खूब रची / दुनिया में नारी / बगिया में दूब रची .....निःसंदेह नारी सृजनहार की ऐसी कृति है जिसे उसने कोमल तन और जैसे अटूट प्राण-शक्ति देकर भेजा है | इस संभाग में मेरा -‘भर खूब उमंगों से / आप सजा लूँगी / मैं दुनिया रंगों से ’ माहिया प्रिय अनिता मंडा के माहिया ‘बेटी का भाग लिखा / आँसू की मसि ले / क्यों दुःख का राग लिखा’ की जुगलबंदी में लिखा गया था | ऐसे ही अनिता के ही माहिया –‘पथरीली राह मिली / औरत के हिस्से / क्यों हरदम आह मिली’ के उत्तर में मैंने –‘पत्थर से टकराना / नदिया की फितरत / बेरोक बहे जाना ’ लिखा | इस प्रयोग की त्रिवेणी ब्लॉग पर खूब सराहना हुई |

‘मैं जाती मैके’ और ‘यूँ तो तू रानी है’ प्रायः हर भारतीय परिवार में घटित होती पति-पत्नी की प्यार भरी चुहल है | ‘मौसम की मर्यादा’ विशुद्ध पर्यावरण से सम्बद्ध माहिया हैं | हमारा व्यवहार ही हमारे पास लौटकर आता है –
वो भी तोड़े वादा / जो हमने तोड़ी / मौसम की मर्यादा |
‘खुशियाँ तो गाया कर’ और ‘हम इतना याद करें’ में जीवन की छोटी-छोटी बातों के बड़े-बड़े सन्देश है | कुछ शिकवे-शिकायत कुछ यादों, कुछ वादों से सजे इन माहियाओं में वास्तव में परिवार में एक प्यारी बिटिया द्वारा पूछे गए भावुक करते प्रश्न से उपजा यह माहिया मुझे विशेष प्रिय है  –
‘मैंने तो मान दिया / क्यों बाबुल तुमने / फिर मेरा दान दिया |’

‘तोलो फिर कुछ बोलो’ आत्मविश्लेषण परक माहिया से शुरू होकर खट्टे-मीठे भावभरे माहिया प्रस्तुत करता है | तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों , समाचारों के बावजूद कुछ है कि जो मुझे हारने नहीं देता , निराश नहीं होने देता यही कारण है कि यदि मैंने कहीं कहा –
‘अब यूँ न विचर तितली / धूप यहाँ दिन में / कल डर-डर कर निकली |’ ... तो साथ ही यह भी कहा-
ऐसे न किरन हारी / जीत गई , यूँ तो- / था अँधियारा भारी |’

‘वो प्रेम पतंगा है’ के माहिया भी अपनी सतरंगी आभा के साथ मन को आह्लादित करते भावों की अभिव्यक्ति करते हैं | प्रेम अपने परम पुनीत स्वरूप के साथ उपस्थित है | प्रेम पर अपना सर्वस्व न्योछावर करते हृदय में भावों की गंगा नहीं होगी तो और क्या होगा | लेकिन मुझे इस शीर्षक के अंतर्गत मोबाइल-प्रेम पर ये माहिए रचने में और अधिक आनंद आया –
तुमसे तो जोड़ गया / मोबाइल फुनवा / लेकिन घर तोड़ गया | ... दूसरी ओर एक पक्ष यह भी –
ये फुनवा यूँ भाए / परदेसी पोता / दादी से बतियाए |

अस्तु ,सुख के साथ दुःख , अँधेरे के साथ उजाला जीवन के आम्नात सत्य हैं , दोनों परस्पर एकनिष्ठ भाव से एक-दूसरे का अनुसरण करते हैं तो मेरे इस प्रयास के भी श्वेत-श्याम दोनों पक्ष होंगे ही | यदि कुछ भी सुन्दर, सुखद है तो वह माँ वाणी का कृपा प्रसाद है | जो त्रुटियाँ हैं वह मेरी हैं ,उनके लिए क्षमा प्रार्थिनी हूँ | साथ ही आभार व्यक्त करती हूँ आदरणीय रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जी का जिन्होंने          इस सृजन-यात्रा में मेरा पथ प्रदर्शन किया | त्रिवेणी , सहज-साहित्य , आधुनिक साहित्य , उदंती , हरिगंधा , सरस्वती सुमन , अनुभूति आदि प्रतिष्ठित पत्रिकाओं की भी हृदय से आभारी हूँ जिन्होंने समय-समय पर मेरे माहिए प्रकाशित कर मेरा उत्साह बढ़ाया | त्रिवेणी पर तथा अन्यत्र प्रकाशित मेरे माहिया पढ़कर सुन्दर प्रतिक्रियाओं से मेरे लेखन को ऊर्जा प्रदान करते परम आदरणीय श्याम त्रिपाठी जी (सम्पादक-हिन्दी चेतना ),आ. विज्ञानव्रत जी , सुदर्शन रत्नाकर जी , कृष्णा वर्मा जी , प्रियंका गुप्ता जी , कमला घटाऔरा जी , कमला निखुर्पा जी , शशि पाधा जी , डॉ. भावना जी , डॉ. कविता भट्ट जी , ज्योत्स्ना प्रदीप जी , अनिता ललित जी , प्रिय अनिता मंडा , सुशीला शिवराण जी , डॉ. जेन्नी शबनम जी , राजेश कुमारी जी , डॉ. सुरेन्द्र वर्मा जी एवं सुभाष चन्द्र लखेड़ा जी के प्रति भी बारम्बार आभारी हूँ | छंद बद्ध रचनाओं की निष्णात कवयित्री सुनीता काम्बोज जी ने भी समय-समय पर माहिया छंदों की लयात्मकता इत्यादि पर अपने अमूल्य सुझाव देकर मुझे कृतार्थ किया है , अतः उनके प्रति भी हृदय से कृतज्ञता व्यक्त करती हूँ |

स्वर्गीय पिता जी का आशीर्वाद सदैव मैंने अपने साथ अनुभव किया है , मेरे शब्द-शब्द में वही तो हैं, उन्हें कोटिशः नमन | आदरणीया माँ , अनुजा विद्योत्तमा और प्रिय अनुज विक्रमादित्य एवं आशुतोष के सराहना भरे शब्द मन को आनंद से भरते रहे हैं ,दोनों भ्रात-वधु नीता और मोनिका भी समय-समय पर सुन्दर शब्दों से उत्साह बढाती रहीं  उनके प्रति मेरी ढेरों शुभाशंसाएँ ! माँ को सादर नमन ! परिवार के सहयोग के बिना तो कोई कार्य संभव ही नहीं | मेरे जीवन सहचर श्री अनिल जी मेरे लेखन की आत्मा हैं , बिखरा ,फैला घर , शाम ढले न दीया न बाती कम्प्यूटर पर लिखने में डूबी ज्योत्स्ना शर्मा की रचनाओं में यदि सुख के स्वर सुनाई दें तो इसका श्रेय निःसंदेह उन्हें ही जाता है , इसके लिए धन्यवाद शब्द बहुत छोटा है | प्रिय बिटिया अनन्या और बेटे अनन्त का मेरी रचनाओं के प्रकाशन पर प्रफुल्लित मुख और सुन्दर प्रतिक्रियाएँ मुझे आनंद से भर देते है , उनके लिए ढेरों शुभकामनाएँ |

आकर्षक आवरण पृष्ठ के लिए आ. के. रवीन्द्र जी एवं सुन्दर , मोहक कलेवर में आबद्ध कर मेरे इन माहिया छंदों को पुस्तक के रूप में प्रस्तुत करने के लिए आदरणीय गिरिराजशरण अग्रवाल जी एवं हिन्दी साहित्य निकेतन परिवार के प्रति हृदय से कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ |उनक इस सकारात्मक सहयोग के बिना यह कार्य संभव ही न था |
‘तुमसे उजियारा है’ में आपसे , समाज से प्राप्त विविध रसान्वित अनुभूतियों को ही माहिया के रूप में कहा है | मेरी इन रचनाओं में आपकी सहृदयता की ही उजास भरी है | यदि कुछ माहिया छंद भी उस आत्मिक प्रकाश को आप तक पहुँचाने में समर्थ हो सके तो मैं अपने प्रयास को सफल समझूँगी | आपकी प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी |

सादर
ज्योत्स्ना शर्मा




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Wednesday, 24 October 2018

138-हे कविवर ,आभार !



डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा 

कथा सुनाई राम की , किया बड़ा उपकार |
सदा करेंगे आपका , हे कविवर आभार ||
हे कविवर आभार , दी ऐसी अमृत-धारा ,
करके जिसका पान , मिटे दुख जग का सारा |
नष्ट करे नित पाप , नाम की महिमा गाई ;
धन्य-धन्य हैं आप , राम की कथा सुनाई ||



                       (चित्र गूगल से साभार )

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Saturday, 29 September 2018

137-वंदन अभिनन्दन शरद !


डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा 

वंदन-अभिनन्दन शरद !
वंदन-अभिनन्दन शरद ! स्नान-पर्व में सद्यस्नाता , धुली-निखरी प्रकृति को निहारते तुम आ ही गए | लो विराजो ! उसने तुम्हारे स्वागत में धवल-कषाय हरसिंगार के फूलों का आसन बिछा दिया है | बरखा के मुक्ताहार से गिरे जिन मोतियों को समेटकर मार्ग के दोनों ओर भर दिया था , उन्हीं से झाँकती रातभर जागी कुमुदिनियाँ स्वागत-गीत गा-गाकर थक गई हैं और निद्रोत्सव मनाकर उठे प्रफुल्लित कमल मुस्कुरा रहे हैं | हरी-हरी टेकरियों पर सजे-धजे वृक्ष पवन और पत्तियों की ताल पर झूम रहे हैं , मानो तुम्हारे आगमन का उत्सव मना रहे हों | पके धान की स्वर्णाभ बालियाँ लोक-कल्याणार्थ सर्वस्व त्याग को तत्पर हैं | निर्मल आकाश में दौड़-धूप करते धौले बादल न जाने किस व्यवस्था में लगे हैं | कभी कहीं छिड़काव करते हैं तो कभी जल से सेवल करते हैं | यूँ ही तो नहीं महाकवि वाल्मीकि , कालिदास ने तुम्हें अपनी कविताओं में उतार दिया | तुलसी दास भी तुम्हारी मनोहर छटा पर मुग्ध हैं – ‘बरषा बिगत सरद रितु आई , लछिमन देखहूँ परम सुहाई’ |
हे उत्सवधर्मी ! तुम्हारा आगमन स्वयं एक उत्सव है | तुम्हारे आने की आहट से ही मेरे भारत की माटी का कण-कण पुलकित हो उठता है | समाज को परम्पराओं से जोड़ते हुए तुम कितनी चतुरता से समरसता का संचार करते हो | तिलक द्वारा प्रारम्भ किए गणेशोत्सव में उमड़े जन-ज्वार के आरती , संध्या-वंदन से गुंजित गगन धूप-दीप से सुवासित हो जाता है | गरबे की धुन पर थिरकते पाँव और रामलीलाओं में गूँजती चौपाइयाँ वाले गाँव तुम्हारे सामाजिक प्रबंधन-चातुर्य को कहते हैं | ‘विजय-पर्व’ में दशानन की पराजय अहंकार-अत्याचार पर सरलता, सौम्यता और सदाचार की विजय का घोष है |
प्रिय शरद ! पितरों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते तुम आराधना भरे भावों के वाहक हो ! वासना से दूर विशुद्ध उपासना ,प्रेम और सौहार्द के पोषक ! शारदीय नवरात्रों में धरा पर साक्षात देवी दुर्गा का जागरण-अवतरण होता है ,निश्चय ही स्त्री-शक्ति का पुण्य-स्मरण ! तुम्हारा ही प्रताप है कि पीयूषवर्षी चन्द्र धरा को क्षीरसागर बना देता है | ‘कोजागरी’ देवी लक्ष्मी की अभ्यर्थना के साथ-साथ गर्वोन्मत्त कन्दर्प के मान-मर्दन का पर्व भी है | हे रसवर्षी सखा ! अद्भुत है तुम्हारा समरसता का व्यवहार ! न पंखे की चिंता न कम्बल की पुकार , धन्य हो तुम ! धन्य है तुम्हारा सर्वहारा से प्यार !
डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा




Wednesday, 26 September 2018

136-थिरकते पुरवाई के पाँव !

डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
शृंगार छंद

चरण के प्रारम्भ में 3-2 मात्राओं के क्रम के साथ 16-16 मात्राओं के चार चरण ,दो-दो चरणों के तुक मिलते हैं , तुकांत में गुरु लघु (2-1)मात्राओं का क्रम होता है | 

झूमती गाती आई भोर
दिवस लो होने लगा किशोर
थिरकते पुरवाई  के पाँव
तृप्त हों तृष्णाओं के गाँव ।।

मिले जब मन से मन का मीत
मौन में मुखरित हो संगीत
अधर पर सजे मधुर मुस्कान
हुई फिर खुशियों से पहचान ।।

जले जब नयनों के दो दीप
लगी फिर मंज़िल बहुत समीप
अँधेरों ने भी मानी हार
किया है स्वप्नों का शृंगार ।।

थामकर हम हाथों में हाथ
चलेंगे जनम-जनम तक साथ
राह में मिलने तो हैं मोड़
कहीं मत जाना मुझको छोड़ ।।
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