Tuesday 24 May 2022

175- रेत के समन्दर


 

1
लिए बैठे हैं
प्यासे और बेचैन
रेत के समन्दर
कैसे तिरेगी
प्रेम की नाव वहाँ
रस ही नहीं जहाँ।


2
वक्त आएगा
जाग जाएँगे कभी
इस बस्ती के भाग
देखिए अभी
डसते विकास को
षडयंत्रों के नाग ।


3
कैसे रचती
मधुर-सी रचना
कचोटता यथार्थ
दिखता यहाँ
अक्सर ही बातों में
घुला-मिला है स्वार्थ ।

4
दूरदर्शन
कहता ही रहता
बस अपनी कथा
क्या बांच पाया
कभी यह किसी की
अपरिमेय व्यथा।

डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा 




Thursday 12 May 2022

174-झूम- झूमकर नाचे गाए

 

कहमुकरियाँ : डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा 

1
कड़क ज़रा पर लगता मीठा
उजला-उजला चाँद सरीखा
पूजन , मंगल , सुख की आशा
क्या सखि साजन ,नहीं बताशा !
2
बड़े प्यार से देता पानी
हो गई उसकी बात पुरानी
पतली गरदन पेट है मोटा
क्या सखि साजन, ना सखि  लोटा !
3
जब भी लिपटे बहुत सुहाए
सारी सर्दी दूर भगाए
मुझको तो कायल कर डाला
क्या सखि साजन, नहीं दुशाला !
4
सब पर रौब उसी का छाया
जग में उसकी अद्भुत माया
सभी सँभालें उसको भैया
क्या सखि साजन, नहीं रुपैया !
5
ना चाहो पर मिल ही जाए
बच्चे हों या बूढ़ा पाए
सबक सिखाए सबको चोखा
क्या सखि शिक्षक, ना सखि धोखा !
6
जब से वह जीवन में आया
लगे धूप भी मुझको छाया
बरखा से भी मुझे बचाता
क्या सखि कमरा, ना सखि छाता !
7
जब भी पास हमारे आए
ज्ञान भरी बातें बतलाए
दुनिया भर का रखे हिसाब
क्या सखि साजन, नहीं किताब  !
8
जब भी दूर ज़रा हो जाए
मार सीटियाँ मुझे बुलाए
किसकी हिम्मत देखे छूकर
क्या सखि  साजन, ना सखि कूकर  !
9
मस्त हवा मस्ती में झूमे
झट मेरे गालों को चूमे
झुककर मेरी मूँदें पलकें
क्या सखि सजना , ना सखि अलकें।
10
कभी बताता पतली , मोटी
हूँ कितनी लम्बी या छोटी
बहस करूँ ना जाए जीता
क्या सखि साजन, ना सखि फीता !
11
देखा-देखी सीटी मारे
कभी राम का नाम उचारे
कितना खुशदिल कभी न रोता
क्या सखि साजन ?
ना सखि तोता ।
12
बने बड़ों का कभी सहारा 
उसने सब दुष्टों को मारा 
पतली, लम्बी है कद-काठी
क्या सखि साजन  ?
ना सखि  लाठी।
13
घन गरजें तो मस्ती छाए
झूम-झूमकर नाचे जाए 
खूब पुकारे करता शोर 
क्या सखि साजन ?
नहीं सखि मोर 
14
दिन भर ठहरे निपट अकेला
पास न रुपया, पैसा , धेला
उजली चादर देता बुनकर
क्या सखि साजन, ना सखि दिनकर।
15
जैसी , जिसकी ,रखता संगत
वैसी ही हो उसकी रंगत
करना चाहे बस मनमानी
क्या सखि साजन, ना सखि पानी।
16
दिनभर जाने कित छुप जाए
दिवस ढले झट मिलने आए
नैन मारकर करे इशारा
क्या सखि साजन, ना सखि तारा।
17
रोटी, सब्जी ,दाल बनाऊँ
सबसे पहले उसे जिमाऊँ
वो मन मोहे, लेउँ बलैया
क्या सखि साजन?
ना सखि गैया।
18
गीत बड़ी मस्ती में गाऊँ
संग मैं उसके उड़ती जाऊँ
वह पल मुझसे जाए न भूला
क्या सखि साजन?
ना सखि झूला।
19
करता पूरी पहरेदारी
वो मुझको मैं उसको प्यारी
नाटा, मोटा , है कुछ काला
क्या सखि साजन?
ना सखि ताला।
20
रहे अकड़कर शान निराली
मैं उसको देती हूँ ताली
सारे घर का है रखवाला
क्या सखि  साजन ?
ना सखि ताला।

- डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा 



















Friday 6 May 2022

173- चँहु दिशि घूमे घाम


                     ( चित्र गूगल से साभार)


'गर्मी के दोहे' आपकी सेवा में - 


गाँव, शहर , खलिहान में , चँहु दिशि घूमे घाम ।

अलसाई दोपहर को , रुचे न कोई काम ।।1


रुत गरमी की आ गई, लिए अगन-सा रूप ।

भोर हुए भटकी फिरे, चटख सुनहरी धूप।।2


सूरज के तेवर कड़े, बरसाता है आग ।

पर मुस्काए गुलमोहर , पहन केसरी पाग ।।3


खूब रसीली लीचियाँ, बर्फ मलाईदार ।

खरबूजा , तरबूज हैं , गरमी के उपहार ।।4


लगें बताशा अम्बियाँ, बड़ी जायकेदार ।

भरी बाल्टियाँ ला धरीं , दादा जी ने द्वार ।।5


हरा पुदीना , मिर्च की , चटनी के क्या दाम ।

पना बना अनमोल है , खट्टे-मीठे आम ।।6


अम्मा ! घर में भर गई , महक मसालेदार ।

मुँह में पानी ला रहा , बरनी भरा अचार ।।7


बड़ी बेरहम ये गरम , हवा उड़ाती धूल 

मुरझाया यूँ ही झरा, विरही मन का फूल ।।8


तपता अम्बर , हो गई , धरती भी बेहाल ।

सूनी पगडंडी ,डगर , किसे सुनाएँ हाल ।।9


लथपथ देह किसान की , बहा स्वेद भरपूर ।

चटकी छाती खेत की , बादल कोसों दूर ।।10


दिनकर निकला काम पर , करे न कोई बात ।

कितने मुश्किल से कटी , यह गरमी की रात ।।11


उमड़-उमड़ कर जो कभी, खूब सींचती प्यार ।

सूख-सूख नाला हुई , वह नदिया की धार ।।12


ए.सी. , पंखा, फ्रिज थके , करते हैं फरियाद ।

घड़ा , सुराही , बीजणा, करो इन्हें भी याद ।।13


टी.वी.चैनल पर छिड़ी, बहस , बरसती आग।

कैसे हों ठंडे भला, भड़के गर्म दिमाग ।।14


सकल विश्व को ध्वंस के , मुख में रहे धकेल ।

विधि के नियत विधान में , मनुज करो मत खेल  ।।15


डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा

( प्रकाशित- 'शब्द सृष्टि' मई, 2022)