1
लिए बैठे हैं
प्यासे और बेचैन
रेत के समन्दर
कैसे तिरेगी
प्रेम की नाव वहाँ
रस ही नहीं जहाँ।
2
वक्त आएगा
जाग जाएँगे कभी
इस बस्ती के भाग
देखिए अभी
डसते विकास को
षडयंत्रों के नाग ।
3
कैसे रचती
मधुर-सी रचना
कचोटता यथार्थ
दिखता यहाँ
अक्सर ही बातों में
घुला-मिला है स्वार्थ ।
4
दूरदर्शन
कहता ही रहता
बस अपनी कथा
क्या बांच पाया
कभी यह किसी की
अपरिमेय व्यथा।
डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
गहरे अर्थों को समेटकर लिखी सहज सुंदर क्षणिकाएं
ReplyDeleteबधाई
प्रेरक प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभार आपका 💐🙏
Deleteकैसे रचती
ReplyDeleteमधुर-सी रचना
कचोटता यथार्थ
दिखता यहाँ
अक्सर ही बातों में
घुला-मिला है स्वार्थ ।
बिलकुल सही कहा आपने,सार्थक सृजन
ज्योत्स्ना जी,आप अपने ब्लॉग पर फॉलोवर्स गैजेट लगाए ताकि हम भी आपके ब्लॉग तक पहुंच सकें,सादर नमन
सुन्दर , प्रेरक प्रतिक्रिया कामिनी जी, हृदय से आभार ।
Deleteआप मेरे ब्लॉग को follow करेंगीं तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा 🙏💐
बहुत सुंदर क्षणिकाएं।
ReplyDeleteप्रेरक प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभार ज्योति जी 🙏💐
Deleteआपके द्वारा सृजित क्षणिकाएं निस्संदेह स्तरीय हैं। तीसरी वाली सरलार्थ एवं गूढ़ार्थ का अद्भुत संगम है (मुझे लगता है कि इसमें 'रचती' के स्थान पर 'रचता' शब्द व्याकरणीय दृष्टि से अधिक उपयुक्त होता)। ऐसी लघु किंतु हृदय से संयुक्त हो जाने वाली रचनाएं ही गागर में सागर की उपमा पाने की अर्हता रखती हैं।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद आदरणीय जितेन्द्र जी 🙏
Deleteरचनाओं के मर्म तक जाती आपकी समीक्षात्मक प्रतिक्रिया मन को आनन्द और प्रेरणा से भर देती है। तीसरी क्षणिका में 'रचती' शब्द का प्रयोग 'रचना' के लिए किया है किन्तु आपके द्वारा सुझाया संशोधन सुन्दर अर्थ की अभिव्यक्ति कर रहा है,पुन: आभार।