Sunday 31 October 2021

169-अनुभूतियों की सुन्दर यात्रा




आज पढ़िएगा छत्तीसगढ़ के सुविज्ञ साहित्यकार श्री रमेश कुमार सोनी जी द्वारा  मेरे हाइकु-संग्रह 'ओस नहाई भोर' की समीक्षा- 



अनुभूतियों की सुन्दर यात्रा-

                  हिंदी हाइकु अपनी साहित्यिक यात्रा में इतनी जल्दी अपनी लोकप्रियता के पंख पसार लेगा इसकी उम्मीद किसी ने नहीं की थी लेकिन इसकी सूक्ष्मता में भावों एवं अनुभूतियों की विशालता ने प्रायः सभी रचनाकारों को हाइकु के पक्ष में खड़ा किया. हिंदी हाइकु को विस्तार देने और इसकी पहचान बनाने में डॉ.सुधा गुप्ता जी के योगदान को रेखांकित करना होगा क्योंकि इन्हीं के संग्रहों को बाँचते हुए शेष रचनाकारों ने हाइकु की पंक्ति लम्बी की,वर्तमान में इस कार्य को रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशुजी प्रशंसनीय रूप से निभा रहे हैं. हाइकु ने विविध देशों में हिंदी की पताका फहराने का कार्य भी बखूबी किया जब इसके वेबसाईट-‘हिंदी हाइकु पर लोगों ने इसे रचने की प्रक्रिया को सीखा-जाना. हिंदी हाइकु में अब जापान से आयातित सिर्फ ढाँचा यानि-5,7,5 वर्ण में तीन पंक्ति का रह गया है, शेष का पूरी तरह से भारतीयकरण हो चुका है. कई विषयों पर अब तक, हाइकु के ढेरों एकल एवं सामूहिक संग्रह इन दिनों नवलेखकों के मार्गदर्शन के लिए उपलब्ध हैं. हिंदी साहित्य अब सोशल मीडिया पर अपने हाइकु परोसते हुए खुश है लेकिन इन सबके बीच हम सभी वरिष्ठ हाइकुकारों को यहीं पर सावधान रहने की भी आवश्यकता है कि कहीं हाइकु के नाम पर साहित्यिक कचरा हमें परास्त ना कर दे.  

                    हिंदी हाइकु की सूक्ष्मता अब भी कई साहित्यकारों को पहेली जैसी लगती है लेकिन जिसने भी हाइकु का दामन थामा उसने अपनी अनुभूत संवेदनाओं को रचने में महारत हासिल कर ली इसी क्रम में एक नाम है-डॉ.ज्योत्स्ना शर्मा का जिनका पहला हाइकु संग्रह-‘ओस नहाई भोर को बाँचने का मुझे सौभाग्य मिला है. इस संग्रह में कुल 490 हाइकु हैं जो इन उपशीर्षकों के अंतर्गत प्रस्तुत हुए हैं-1.करूँ नमन!,  2. प्रकृति-सखि!, 3. कैसा कुचक्र?, 4. सुधियों की वीथिका , 5.बिखरा दूँ कलियाँ , 6.नवल किरण एवं 7. विविध रस-रंग। इस संग्रह के हाइकु आपकी जीवन यात्रा के सहचर बने हुए हैं जिन्हें आपने विविध समयों पर रचा, इन्हें पढ़ते हुए कहीं भी नहीं लगा कि यह आपका प्रथम संग्रह है. इस संग्रह में आपके भाषा कौशल की सुष्ठुता, कोमलता,तो कहीं प्रकृति के स्थान पर अपने आपको रखकर महसूस करने के भावों को हाइकु के मनके के रूप में पिरोने का श्रमसाध्य कार्य स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है, इनको रचते हुए आपने अपनी शिक्षा को भी सार्थक किया है.   

                      इस संग्रह का शुभारम्भ आपके हाइकु -पद्मासना की आराधिका और कान्हा की बावरी होती हुई-करते हैं जो आगे बढ़कर इस संसार के ईश्वर रूपी-माता एवं गुरु की महिमा को नमन करते हुए विस्तारित हुए हैं; इस खंड के हाइकु अध्यात्म से ओत-प्रोत हैं तथा माता और गुरु की महत्ता का बखान करते हुए उनकी शीतल छाँव में एक अलाव जलाने की कोशिश है-

करूँ नमन/माटी को भी सद्गुरू/करें चन्दन।

स्पर्श तुम्हारा/पीड़ा के सवालों का/हल है प्यारा।

                  हाइकु मूलतः प्रकृति के वेश में भली लगती है बिलकुल सजीली दुल्हन सी,प्रकृति का वर्णन इतना आसान भी नहीं कि बस कमरे में बैठा और लिख लिया; इसके लिए प्रकृति के साथ हमें जीना होता है और इस हेतु आपको भोर में उठना भी होगा तभी आप इतने सुन्दर दृश्य को अनुभूत करते हुए हाइकु में पिरो सकेंगे. इन हाइकु के शब्द जो संकेत में कह रहे हैं जो मानवीयकरण हम यहाँ महसूस कर रहे हैं ये अद्भुत है-

भोर किरन/उतरी है धरा के/छूने चरन।

धूप नागरी/पल-पल बदले/रूप बावरी।

दिशा-वधूटी/लो हो गई लाज से/भोर गुलाबी।

संदेशे लिखे/चाँदनी में डुबोके/निशा भोर के।

             भोर के साथ ही साथ हर दिन साँझ के आँचल में अपना शीश टिकाकर विश्राम पाती है लेकिन यह दृश्य भी भोर से कम नहीं होता हाँ, यहाँ भोर के जैसी ताजगी तो नहीं होती बल्कि होते हैं -अपनों का इंतजार, दिन के किस्से सुनने की बेताबी....और रात को न्यौता देते पूजा-अर्चना. संध्या सुंदरी का वर्णन करते हुए आपके हाइकु लजाते हुए प्रस्तुत हुए हैं-

संध्या सुंदरी/सुनहरी अलकें/खोले पवन।

जोगन सँझा/बैठी बैराग लिये/पंथ निहारे।

रात सलोनी/अलबेली मालिन/लाई कलियाँ।

रजनी बाला/कहाँ खोया है बाला/हँसिया वाला।

              बागों में अपनी और दूसरों की सुनते हुए टहलना हर किसी को सुहाता है लेकिन इन सबके बीच माली का परिश्रम और तितली-भौरों की चुहलबाजी पुष्पों के साथ एक नया और अद्भुत रंग जमाती है. बागों को वसंत रंगता तो है लेकिन इनसे होकर गुजरने वाली हवाओं की शोखियों के किस्सों का स्त्रियों की वर्तमान दशा के साथ यहाँ आपने तुलना की है,आपके हाइकु यहाँ संकेत में बहुत कुछ कहते हुए प्रकट हुए हैं-

पहने खड़ी/फूलों-भरी बगिया/काँटों के हार।

शोर न कर/सोई है नन्ही कली/नादान हवा।

मुस्काई कली/हो गई बदनाम/चर्चा है आम।

आवारा हवा/सिटी बजाते डोले/रोके न रुके।

            मेघों की आवारगी किसी से छिपी नहीं है कहीं कोई सूखे खेत राह ताकते हैं तो उसे ठेंगा दिखाकर ये लौट जाते हैं बिना बरसे, तो कभी अपनी रौद्र रूप दिखाकर जलप्लावन कर देते हैं,गाँव -शहर के साथ ये बहा कर ले जाते हैं लोगों के खेत,घर और सपने. मेघ को हवाएँ अपने कंधों पर इन्हें बिठाए सैर कराते रहती हैं लेकिन पहाड़ों पर भी विश्राम के पल में इनकी धमाचौकड़ी तबाही मचा कर ही छोड़ती है. इन सबके बावजूद लोग मेघ बुलाते हैं-पानी के लिए,मयूर नाचते हैं,लोग भीगते हैं और आपके जैसा कविमन इन्हीं बूँदों की अठखेलियों को हाइकु में समेट लेता है. इन सब हाइकु में मेघ और वर्षा के कई दृश्य एक साथ हैं इन्हें महसूस करिए-

कित्ता गुर्राए/बरसे न बूँद भी/ढोल बजाए।

मेघ महान/आएँ,बरसें,रोपें/खेतों में धान।

बूँद बरसीं/छनकीं हैं यादें भी/पैंजनियाँ सी।

नन्हीं बुंदियाँ/लेके हाथों में हाथ/नाचती फिरे।

निर्मोही चंदा/बदरी-संग खेले/आँख-मिचौली।

सोच न पाऊँ/बरखा री! कपड़े/कहाँ सुखाऊँ।

सूरज थका/डूब-डूब नहाए/गहरे नीर।

               वर्तमान समय की सबसे बड़ी त्रासदी प्रदूषण का दानव है जिसे आधुनिक जीवन शैली ने जन्मा है अब इससे बचने और इसकी व्यथा को आमजन तक पहुँचाने का बीड़ा यहाँ हाइकुकार ने उठाया है.आपने प्रदूषण की समस्या और समाधान का आईना समाज के समक्ष जोरों से उठाया है. पानी और आक्सीजन की कमी से जूझती एक बड़ी आबादी को हमने देखा है इसलिए पेड़ लगाने और पानी बचाने का सन्देश जनहित में है-

नाचेगा मोर?/बचा ही न जंगल/ये कैसी भोर?

काटें न वृक्ष/व्याकुल नदी-नद/धरा कम्पिता।

बादल धुआँ/घुटती-सी साँसें हैं/व्याकुल धरा।

कितना शोर/कोई तो समझाए/राम बचाए।

जल-जीवन/जाने हैं तो माने भी/सहेजें घन।

रहे अक्षत/धरती की चूनर/ओज़ोन पर्त।

                 प्रत्येक के जीवन में उनकी यादों का गुल्लक कभी नहीं भरता यह बहुत भूखा होता है-प्यार और स्नेह का, चाहे वह रिश्तों से मिले या समाज से. यादें हम सबकी अपनी धरोहर भी होती हैं जो बुढ़ापे में काम आती हैं-बच्चों के किस्सागोई के लिए. इस खंड के हाइकु सशक्त हैं और जीवन के हर पड़ाव की खुशियों एवं  व्यथा को समेट कर ले आए हैं. इनमें हमें मिलेगा-ब्याह की ख़ुशी और गम,मायके की यादें, माँ बनने के दर्द में ख़ुशी, सखियों एवं भाई की यादें...आदि. आप भी इस खंड के हाइकु में अपनी खुशियों और यादों को खोजने का प्रयत्न करिए-

कनी रेत की/सहे सीप में पीड़ा/बनेगी मोती।

यादों की बस्ती/हर घर पे लिखा/तेरा ही नाम।

सुन रे मन!/आँसू और मुस्कान/यही जीवन।

बर्फ़ थे रिश्ते/यादों के अलाव/दे गए ताप।

                   भारतवर्ष अपने उत्सवों के लिए जाना जाता है, जितनी ऋतुएँ उससे भी ज्यादा उमंग-ख़ुशी और विविध स्मृतियों से जुड़े उत्सव सबके रंग निराले और हम सबने इसके साथ-साथ अपना-अपना समय बिताया है इसलिए ये अब ये यहाँ साहित्यिक उत्सव लेकर प्रस्तुत  हुए हैं. इन हाइकु में हमें दर्शन करने को मिलेगा-होली,दिवाली,राखी,गौरा पूजा,...औरअन्य त्यौहारों की उमंग,इसके शुभ सन्देश और उजास भावनाओं का प्रवाह –

चुन लूँ काँटे/तेरे पथ से साथी/खिलें बहारें।

रेशमी स्पर्श/मन्त्र अभिसिंचित/पुष्प वज्र-सा।

चाह युगों की/जले दीप से दीप/ज्योति पर्व हो।

               बाल्यकाल सदैव से ही ईश्वर की लीलाओं की तरह ही अब भी यहाँ निभाया जाता है जो हम सबकी खुशियों को बढ़ाने ही आता है वैसे भी दुनियावी चिंता से मुक्त ये अवस्था हम सबके लिए निश्च्छलता और भोलेपन को परिभाषित करता है. हमें इन हाइकु में दर्शन होंगे-कोमलता,सरल-सहज भाषा,बच्चों के खेलकूद , चंदा मामा, मिट्ठू ,धौली गाय और ...मोर नृत्य. ये हाइकु इस संग्रह के सबसे अच्छे हाइकु हैं-

दे दाना भैया/चुनमुन चिरैया/करे ता-थैया!

कितनी प्यारी/घूम-घूम झालर/फ्रॉक हमारी।

मछली रानी/डूब, डूब देख आ/कित्ता है पानी?

           विविध दृश्यों से गुजारते हुए ये हाइकु हमें अपने अंतिम पड़ाव में लेकर आते हैं जहाँ हमें अपने वर्तमान के दर्शन होते हैं जो हमारे ही भूतकाल के किए हुए कृत्यों का परिणाम हैं. इस खंड में हैं-गाँव की यादें,शहर से तुलना,लोभी मानव...और चुनाव. इन हाइकु की शब्दशक्ति को परखिए कि ये कितनी सहजता से अपनी सामाजिक विषमता को हमारे समक्ष आईना की तरह प्रस्तुत कर रहे हैं-

रोया है नीम/बाँट दिए आँगन/माँ तकसीम।

बँटा समाज/चलती हैं गोलियाँ/मेड़ों पे आज।

विकास दूर/हुआ ग्राम्य जीवन/नशे में चूर।

बगिया मौन/नफ़रत के बीज/बो गया कौन?

                   प्रथम संकलन के अनुसार आपकी लेखनी ने आपके हाइकु को भटकने से रोका हैं, आपकी शब्दशक्ति और भावों को संकेतों के रूप में प्रस्तुत करने की कला आपके इस संग्रह को विशिष्ट बनाती है साथ ही ये उम्मीद भी जगाती है कि आपमें एक बेहतरीन हाइकुकार की सभी संभावनाएँ छिपी हुई हैं.

इस संग्रहणीय एवं पठनीय अंक की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ-

बीता है कल/आज को भी जाना है/फिर आना है।

दूँ शुभेच्छाएँ/फलित कामनाएँ/सब हो जाएँ।   



                                          

 

                                      

2021

रमेश कुमार सोनी

कबीर नगर-रायपुर (छत्तीसगढ़ )

7049355476  / 9424220209

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ओस नहाई भोर-हाइकु संग्रह , डॉ.ज्योत्स्ना शर्मा

अयन प्रकाशन-दिल्ली, सन-2015 , मूल्य-240/-रु. , ISBN; 978-81-7408-808-6

भूमिका-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु , फ्लैप-डॉ.सुधा गुप्ता-मेरठ

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Saturday 23 October 2021

168- जीवन पथ पर !




1.

वही बस वही तो उजालों में आए
कि, जिसने अँधेरों में दीपक जलाए ।

ये रस्ता कहाँ से कहाँ जा रहा है 
जिसे खुद पता हो वही तो बताए ।

गिरा बिजलियाँ आशियाने पे मेरे
वो पूछें हुआ क्या है बैठे-बिठाए ।

इरादों का उनके पता ही चला जब 
रुलाकरके हमको वो खुद मुसकुराए।

करे माफ रब भी सुबह का जो भूला 
ढले शाम जब अपने घर लौट आए 

सरल है बहुत बात पर बात कहना 
सही है तभी, काम करके दिखाए ।

2.

नभ को रंग बदलते देखा 
सूरज उगते-ढलते देखा ।

जीवन-पथ पर पथिकजनों को 
गिरते और सँभलते देखा ।

जिसका कोई मोल नहीं ,वह 
सिक्का खूब उछलते देखा ।

उजले-उजले परिधानों में 
अँधियारों को पलते देखा ।

जिनके सिर औ' पैर नहीं थे
उन बातों को चलते देखा ।

बेबस आँखों के दरिया में 
इक तूफान मचलते देखा।

तनिक ताप से हिमखंडों को 
धीरे-धीरे गलते देखा ।



डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा 

 





Tuesday 19 October 2021

167-बलिहारी जाऊँ !


 


चले उधर ही जिधर चलाऊँ
मैं उसपर बलिहारी जाऊँ
चाल अनोखी ,चले अगाड़ी
क्या सखि साजन, ना सखि गाड़ी !1

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कभी हँसाए कभी रुलाए
दूर-दूर की सैर कराए
जब भी देखूँ लगता अपना
क्या सखि साजन, ना सखि सपना !2

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छीन ले गया चूनर मेरी
इधर-उधर की मारे फेरी
पीछे आए घर के अन्दर
क्या सखि साजन ना सखि बन्दर !3

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मुझ सा बनकर सम्मुख आए
मैं मुसकाऊँ वो मुसकाए
सब कुछ मेरा उसपर अर्पण
क्या सखि साजन, ना सखि  दर्पण!4

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मधुर भाव हैं बड़ा रसीला
करे कभी नयनों को गीला
जाने महफिल खूब जमाना
क्या सखि साजन, ना सखि गाना !5

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कैसे काम करूँ मैं पूरा
सब कुछ उसके बिना अधूरा
उस बिन इक पल चले न जीवन
क्या सखि साजन, ना ऑक्सीजन !6

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यूँ तो अक्सर बोले जाए
दुनिया भर की बात सुनाए
कभी चिड़ाए धरकर मौन
क्या सखि साजन ,नहीं सखि  फोन!7

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उसपर अपनी जान लुटा दूँ
उसकी खातिर जहाँ भुला दूँ
भरे भाव की पावन गंगा
क्या सखि साजन, नहीं तिरंगा !8

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दम-दम दमके रूप सजाए
लगे गले तो मन हर्षाए
यूँ मन पर जादू कर डाला
क्या सखि साजन, ना सखि माला !9

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यूँ तो है वह बिल्कुल काला
नैन बसे  ने जादू डाला
ज़रा चरपरा करता घायल
क्या सखि साजन, ना सखि काजल !10

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डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा 

(चित्र गूगल से साभार)








Monday 4 October 2021

165- नभ के रंग


 


1
बढ़े तपिश
समाने लगे फिर
बिन्दु में सिंधु ।
2
आई जो आँधी
लो तिनका-तिनका
हुआ बसेरा ।
3
नन्ही चिड़िया
चाहती सहेजना
आँधी में नीड़।
4
गर्द उड़ाती
गिरा देती है आँधी
अकड़े पेड़।
5
स्याह दुशाला
आती है ओढ़कर 
देखो तो आँधी।
6
बूँदे झरतीं
किसी ने किसी पर
मिटा दी हस्ती ।
7
कैसी मोहनी
बादल चल दिए
आँधी के संग ।
8
नभ के रंग
टुकुर-टुकुर ही
देखती धरा।
9
अच्छा या बुरा
देखने नहीं देती
इश्क की आँधी ।
10
निहारे जो वो 
ज़रा प्यार से फिर 
खिले बहार ।

डॉ.ज्योत्स्ना शर्मा

( चित्र गूगल से साभार)