Friday 13 July 2018

133 - ये लफ्ज़ नहीं सफ़र के छाले हैं !



 डॉ•ज्योत्स्ना शर्मा


सफ़र के छाले हैं( हाइबन-हाइकु-संग्रह) : डॉ•सुधा गुप्तापृष्ठ:112 ; मूल्य :220 रुपये।संस्करण: 2014 ; प्रकाशक: अयन प्रकाशन , 1/20, महरौली नई दिल्ली-110030

            हाइकु ,ताँका ,सेदोका और चोका के बाद जापानी साहित्य की एक और लोकप्रिय विधा ‘हाइबन’से परिचय हुआ। कुछ हाइबन पढ़े तो और अधिक जानने की जिज्ञासा हुई । तभी डॉ. सुधा गुप्ता जी का  हाइबन और हाइकु का संग्रह ‘सफर के छाले है’ पढ़ने का सुयोग बना ; जिसे पढ़कर हाइबन के भावगत-शिल्पगत सौंदर्य ने और भी अभिभूत कर दिया ।अत्यंत रोचक और सरस विधा पर भूमिका में रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी ने पर्याप्त जानकारी प्रदान की है । गद्य काव्य का स्वरूप धारे प्रकृति, परिवेश , यात्रा-वृत्तांत ,संस्मरण ,डायरी तथा अन्य विविध भावों की सरस चर्चा और फिर उन्ही भावों को पुष्ट करते एक या अनेक हाइकु ऐसा कलेवर लिये हाइबन का स्वरूप मनोमुग्धकारी है । पुस्तक के दो खण्डों में  से प्रथम में कवयित्री /लेखिका ने जीवन के मधुर-तिक्त अनुभवों को बेहद सरसता , सजीवता के साथ अभिव्यक्त किया है । वस्तुतः हाइबन का भाव-संसार, इसकी विषय-वस्तु बहुत व्यापक एवं गहन है ,जिस पर सुधा जी की समर्थ लेखनी ने पर्याप्त रस-वर्षण किया ।‘ सराय' अपनों की , अपने वक्त की निष्ठुरता को कहता है । ‘पाथर पंख’ विवशता की पराकाष्ठा है सुन्दर कामनाओं का विस्तृत संसार और पत्थर के पंख ... अब शिकायत करें भी तो किससे उसके सिवा -
            वाह रे ऊपर वाले ! तू भी बड़ा मज़ाक पसंद है ! नित नए कौतुक करना तेरी फ़ितरत में शामिल !
            आग का प्याला /धरती के होंठों से / लगा के हँसा ।
            उस आग को /धरती तो पी गई /तू खुद जला ।
       कपाल कुण्डला’ और ‘खण्डहर’ दुर्वह एकांत की घनीभूत पीड़ा हैं .... “बाहर आती तो कैसे ? रास्ता पाती तो क्यों कर ? वह खण्डहर तो खुद मेरा अपना था !!
बंजर धरा /डूब के तिनके को / तरस रही”
 दुःख चीता है’ पर  “ख़ुशी की हिरनी और दुःख का चीता” इतना कथन मात्र संवेदना के सागर को आलोड़ित करने में समर्थ है । ‘अर्चि का आचमन’ , ‘शोक-गीत’  जीवन के कटु सत्य से रूबरू / साक्षात्कार कराते हाइबन हैं । नैनीताल प्रवास, कुमायुँ प्रवास , नाज़ुक फ़ूलचुकी ,फिर आ गया चैत , कूकी थी पिकी और पोशाक जैसे हाइबन कवयित्री के प्रकृति के साथ तादात्म्य को द्योतित करते हैं ।मासूम फ़ाख्ता और ‘पोशाक’ की संवेदनात्मक दृष्टि .....
अरी ,तू पूरी बारिश में भीगती रही थी क्या ? घने पत्तों ने भी आसरा न दिया ? कुछ न बोली | उसके भीगे डैनों और भारी पंखों ने ही कहा –
तेरी तरह /कई जोड़ी पोशाक / नहीं है यहाँ |
पंछी के पास /बस एक पोशाक / गीली या सूखी |”
सिल्वर ओक की शाखाओं में फर-फर करती नन्ही चिड़िया का आना और जाना ..देखिए... “क्षिप्र गति पंखों की हलचल से सहसा पेड़ की टहनियाँ नींद से चौंक पड़ती हैं ,उसकी चंचलता को देख ,चकित-विस्मित..पलांश में गायब हो जाती .... यही जीवन है ?
आई चिरैया /टहनी मुस्कुरा दी /उड़ी ,उदास !
यात्रा वृत्तांत से जुड़े अन्य  हाइबनों में गोरखपुर , कुशीनगर और सात देवियों के दर्शन आध्यात्मिक  , दिव्य भावनाओं ,अनुभूतियों से परिवेष्टित हाइबन हैं । सुधा जी स्वयं कह उठती हैं-
            इतना सुख /सम्हाले न सम्भले /कहाँ सहेजूँ ?
पर्यावरण के प्रति सजगता यहाँ भी मुखर हुई है ।राजस्थान टूर पर कवयित्री अजमेर-पुष्कर जी की विगत और वर्तमान दशा पर तुलनात्मक चिंतन कर व्यथित हैं -
1976 में.. स्फटिक मणि/दूर तक फैला था /जल -विस्तार ।
और
2001 में... विनाश लीला /छिलके  ,पन्नी ,टोंटे /फैले पड़े हैं ।
      कर्मयोगी सूर्य उन्हें मोहित करता है...... “ सूरज तो सच्चा कर्मयोगी ....
पौ फटते ही / सूरज बुनकर /काम में लगा |
बुनता रहा /रौशनी के लिबास / सबके लिए |”
........तो साँझ की देहरी पर खड़ा सूरज अनकही कथा कहता है।  संगदिल मौसम के सितम मन दुखा जाते हैं , दूसरी ओर महकी सुबह में आश्वस्ति के स्वरों की मधुर गुनगुनाहट भी है - 
            उनका आना /खुशनुमा सुबह /महक उठी ।
     दूसरे खंड ‘मौसम बहुरंगी’ में कहना न होगा कि कवयित्री ने हाइकुओं के माध्यम से विविध ऋतुओं के लुभावने चित्र साकार किए हैं और मौसम के व्याज से बहुत कुछ कहा है-
            ठसक बैठी /पीला घाघरा फैला /रानी सरसों ।
            दर्पण देखे /फूलों के भार झुकी /नव-वल्लरी ।
            चैती गुलाब /खुशबू न समाए /हवा उड़ाए ।
            कली थी खिली /वैशाख -आँधी से /धूलि में मिली ।
दो युवा बेटी / धरती है बेचैन /’बाढ़’ व सूखा |
            लाल छाता ले /घूमती वन कन्या /जेठ मास में ।   ...और यह भी देखिए.....जो  केवल ऋतु वर्णन नहीं है ...
           शीत की मारी / पेट में घुटने दे / सोई है रात ।
            सूखी पत्तियाँ / चरमरा रही हैं / पाँवों के तले ।
अटल ध्रुव का परम सात्त्विक बिम्ब .........
            चमका ध्रुव  : /माँ की लौंग का हीरा /कौंध मारता |
            कहाँ तक कहूँ,एक से बढ़कर एक अनगिन मोहक चित्र उकेरे गए हैं ,जिनका आनंद पुस्तक पढ़कर ही ले पाना संभव है । डॉ•सुधा गुप्ता जी हिन्दी –जगत् में सार्थक हाइकु का पर्याय बन गई हैं। इनकी लेखनी से नि:सृत शब्द बोलते–बतियाते प्रतीत होते हैं। इसीलिए इनकी  भावानुवर्तिनी भाषा पुस्तक की सरसता को और अधिक बढ़ाने में पूर्णतया समर्थ है । पुस्तक के विषय में स्वयं सुधा जी ने कहा है-
            ये लफ्ज़ नहीं /सफ़र के छाले हैं / दर्द-रिसाले’
 हाइबन और हाइकु की मिली-जुली अनुभूतियों  वाले इस संग्रह के बारे में  मेरा इतना ही कहना है-
            कभी रागनी /कभी जीवन-कथा /साकार व्यथा ।
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- डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
H-604, प्रमुख हिल्स , छरवाडा रोड , वापी
जिला-वलसाड , गुजरात
396191

6 comments:

  1. मेरी प्रिय पुस्तक है , आशा करती हूँ आपको भी पसंद आएगी !

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  2. शानदार पुस्तक की शानदार समीक्षा, वाह !आप दोनों को हार्दिक बधाई ।

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    1. हृदय से आभार सुनीता जी !

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (15-07-2018) को "आमन्त्रण स्वीकार करें" (चर्चा अंक-3033) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. इस स्नेह और सम्मान के लिए हृदय से आभार आदरणीय !

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