1
कितना गुस्सा थी मैं
किसी की नहीं सुनी
मन का पहना , मन का
खाया
कितना शोर मचाया
खूब भटकी
अपनी 'आज़ादी' के साथ
लौटी जो घर.... न जाने किन
ख्यालों में खो गई
और फिर .... तुम्हारे कन्धे पर
सिर रखकर सो गई ।
2
सकरी गलियों
में
बड़े-बड़े वाहन
अटक ही जाएँगे
सुनो ! मन को विस्तार दो
तभी बड़े विचार आएंगे ।
3
आज के दौर में
दीमकों ने खाई तो ,
किताब मुस्कराई
और बोली ...चलो !
किसी के तो काम
आई ।
4
झूठ के नगर में
किसी ने हमारे
प्यारे 'सच' की बात चला दी
सब चिल्लाए , " ऐसा
कुछ नहीं होता है"
मज़े की बात हमने भी हाँ में हाँ मिला दी।
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डॉ
ज्योत्स्ना शर्मा
शुभकामनाएँ 💐💐
ReplyDeleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(०९ -०३-२०२३) को 'माँ बच्चों का बसंत'(चर्चा-अंक -४६४५) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
जी , बहुत बहुत आभार आपका 🙏
Deleteबहुत ही सुंदर सृजन
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद 🙏
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteप्रेरक उपस्थिति के लिए हृदय से आभार आपका 🙏
Deleteशानदार लघु रचनाएं, संवेदनाओं से पूरित हृदय का आलाप।
ReplyDeleteसस्नेह।
प्रेरक उपस्थिति के लिए हृदय से आभार आपका 🙏
Deleteशानदार क्षणिकाएं। सुंदर लेखन के लिए बधाई।
ReplyDeleteप्रेरक उपस्थिति के लिए हृदय से आभार जिज्ञासा जी 🙏
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