डॉ.ज्योत्स्ना शर्मा
बीती हुई बातों से बिछुड़कर नहीं देखा ,
क्यूँ पास में थे पंख फिर उड़कर नहीं देखा |
वो प्यास से तड़पा बहुत शहरी गुरूर में ,
था गाँव में पनघट मगर मुड़कर नहीं देखा |
कुछ भी कठिन नहीं था ,रही इक भूल हमारी ,
बस एक ने भी एक से जुड़कर नहीं देखा |
बेपर्दगी गुरबत का दर्द झेलना पड़ा ,
जब पाँव ने चादर में सिकुड़कर नहीं देखा |
ये नफरतों की आग बुझे भी तो किस तरह ,
आँखों के समंदर ने निचुड़कर नहीं देखा ||
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