Monday, 5 June 2017

120-जब गीत बुने न्यारे ....




डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
लगते कितने प्यारे 
बूँदहवा ,नदिया 
जब गीत बुने न्यारे ।1

मीठा सा गीत दिया
जल ,पंछी ,झरने
कल-कल संगीत दिया ।2

नदिया को बहने दो 
धरती का आँचल 
धानी ही रहने दो । 3

गौरव का गान करें 
उच्च शिखर धौले
खुद पर अभिमान करें ।4

काँपा कुछ बोल गया 
आज पहाड़ों का 
धीरज भी डोल गया । 5

कैसा यह बादल है 
रूठी है बरखा 
धूँएँ का काजल है ।6

कचरे से भर डाला 
अमृत से जल को 
क्यों विषमय कर डाला । 7

दिन जैसे रैन हुआ
क्या लाई नदिया
सागर बेचैन हुआ ।8

अब कद्र नहीं जानी 
कल फिर पीने को 
दो बूँद नहीं पानी । 9

मौसम है क्यों बोझल 
गौरैया प्यारी
आँखों से क्यों ओझल ? 10

यूँ तो सब सहती है 
काँप उठी धरती
देखो कुछ कहती है ।11

पहले मनवा तरसा
प्यासी धरती पर 
फिर क्यों एसिड बरसा ?12

रोकर बदली हारी 
देख नहीं पाई
धरती की लाचारी ।13

वो भी तोड़े वादा 
जो तुमने तोड़ी 
मौसम की मर्यादा ।14

पेड़ों के तन आरी
फल तुम पाओगे 
बदले में दुख भारी । 15

पी है कैसी हाला 
मधुर फलों को भी
क्यों विष से भर डाला ।16

सोचो ,तब काम करो 
केवल 'पिकनिक' से
मत तीरथ धाम करो ।17

झरने का नाद सुनो 
मौन रहो मन से 
कोई संवाद बुनो । 18

नदिया की स्वर लहरी 
सींच रही जीवन 
कब पल भर को ठहरी ।19

थोड़ा तो मान करो 
सहज सहेजो धन 
सुख का संधान करो ।20 

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('अचिन्त साहित्य' में प्रकाशित) 

(चित्र गूगल से साभार )