अनिता मंडा
रूह
१
आग इसे जला नहीं सकती
पानी गला नहीं सकता
हवा इसे सुखा नहीं सकती
पर सदा छुअन से परे
कब रह पाती है रूह
दबती तो है यादों के बोझ से
काँपती तो है काली
अँधेरी परछाइयों से
तोड़ते तो हैं दुःख के
पत्थर इसे
बंधती तो है
मोह के धागों से
कहाँ रह पाती है
रूह आज़ाद।
२
सज़दे में है या गुनाह में है
दिल तू ही बता किस राह में है...
फिर एक छनाका होने को है
शीशा पत्थर की पनाह में है...
अब रूह काँपती है इस चमन की
कली इक खिलने की चाह में है...
यूँ खेला न करो टूटे दिल से
कुछ तो असर उसकी आह में है...
हमसे सच कह दिया करो हुजूर
कुछ ना रखा झूठी सी वाह में है...
छुपा ना रहेगा कुछ भी उससे
अब हर कदम उसकी निगाह में है...
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(चित्र गूगल से साभार)