डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
दुर्गा , काली मात को , पूजे सकल समाज ।
फिर क्यों सबला को मिले, मर्दानी का ताज ।।1
नारी बन नारायणी ,उठ कर सोच विचार ।
स्वयं शक्ति ,तेजस्विनी,रच उज्ज्वल संसार ।।2
कभी सुखद -सी चंद्रिका ,कभी सुनहरी धूप ,
कुदरत ने तुझको रचा , देकर रूप –अनूप ।।3
कोमलता , शालीनता ,गहने हैं ,ले मान ।
लेकिन कर प्रतिकार अब , मत सहना अपमान ।।4
कठपुतली बन कर रहूँ ,कब तक
तेरे साथ ,
डोरी रख ले थाम कुछ, दे
मेरे भी हाथ ।।5
पग-पग पर मिलते यहाँ ,दुःशासन
उद्दण्ड,
बैठे हैं धृतराष्ट्र क्या , लिये
हाथ में दण्ड ।।6
जीवन की संजीवनी , आप करे संघर्ष ।
देख दशा, तेरी
दिशा , शोक करें या हर्ष ।।7
पिंजरे की मैना चकित,क्या भरती परवाज़ ।
कदम-कदम पर गिद्ध हैं ,आँख गड़ाए बाज़ ।।8
पावनता पाई नहीं ,जन -मन
का विश्वास ।
सीता को भी राम से , भेंट
मिला वनवास ।।9
फूल कली से कह गए ,रखना इतना मान ।
बिन देखे होती रहे ,खुशबू से पहचान ।।10
शीश चुनरिया सीख की ,मन में मधुरिम गीत ।
बाबुल तेरी लाडली ,कभी न भूले रीत ।। 11
बिटिया को समझाइए ,सही-गलत
पहचान ।
मानव के भी वेश में ,मिलते
हैं शैतान ।। 12
छुपकर तितली ने पढ़े ,सभी सुमन के पत्र।
सोच–समझ उड़ना सखी , वन,उपवन ,सर्वत्र।। 13
देख-देखकर हो गए , डर,शंका निर्मूल ।
रंग-बिरंगी तितलियाँ ,उड़ें
फूल से फूल ।। 14
मिली राह में ज़िंदगी ,बड़े दिनों के बाद ।
कुछ मुट्ठी में बंद सी , कुछ
लगती आज़ाद ।। 15
दिवस अठारह तक चला ,द्वापर में संग्राम ।
कलियुग में क्यों कर भला,लेता नहीं विराम ।। 16
बैठीं नैना मूँद कर ,गांधारी किस चाह ।
सच्ची जीवन संगिनी ,सही सुझाए राह ।। 17
पोर-पोर पीड़ा बसी ,अभी रहे चुपचाप।
क्षमा कभी खुद को भला, कर पाएँगें आप ।। 18
राजनीति चौसर बिछा ,खेल रही है द्यूत ।
शकुनि दे रहे मंत्रणा ,प्रज्ञा हुई अछूत ।। 19
कैसे हम उनको कहें ,स्वयं धर्म का रूप ।
रखें प्रिया को दाँव क्या ,मर्यादा अनुरूप ।। 20
कान्हा तब तुमने रखी ,द्रुपद सुता की लाज ।
घर-घर हों वीरांगना , दुर्गा, लक्ष्मी आज ।। 21
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