प्रखर राष्ट्रवाद के पोषक स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर
सावरकर का साहित्य मराठी भाषा का ही नहीं अपितु भारतीय साहित्य की अनुपम निधि है |
28 मई, 1883 को महाराष्ट्र की मेदिनी (नासिक जिले के भगुर ग्राम) को अपने जन्म से
अलंकृत करने वाले सावरकर का रचना संसार ‘मेजिनी का चरित्र’ से कमला , विरहोच्छ्वास ,
हिंदुत्व , उः श्राप ,उत्तर क्रिया , मोपलों का विद्रोह ,गोमान्तक , मुझे इससे
क्या?, मेरा आजीवन कारावास 1857 का स्वातंत्र्य समर , काला पानी तथा अन्य भी अनेक
काव्य , लेख , कथा , आत्मचरित्र, उपन्यास जैसी विविध विधाओं में रचित पुस्तकों के
रूप में बहुत विस्तृत है | सावरकर की रचनाएँ उनके केवल क्रांतिकारी ही नहीं अपितु
श्रेष्ठ लेखक , चिन्तक , समाज सुधारक ,
ओजस्वी व्यक्तित्त्व की परिचायक हैं , मात्र अंग्रेजों की दासता से ही नहीं
वरन समाज की घोर अनर्थकारी ,सड़ी-गली मान्यताओं के विरुद्ध संघर्ष का बिगुलनाद करती
हैं | ब्रिटिश सरकार द्वारा दो बार आजन्म कारावास की सजा प्राप्त ,अंदमान की
काल-कोठरी के भयावह संसार में, माँ भारती के चरणों में अपना सर्वस्व समर्पित करने
वाले सपूत के द्वारा कीलों, काँटों ,नाखूनों से सृजित साहित्य का स्वर पूरे भारत
वर्ष में गूँजना ही चाहिए |
सन 1857 की पचासवीं वर्षगांठ को ब्रिटेन के द्वारा विजय-दिवस
के रूप में मनाए जाने से उद्वेलित सावरकर द्वारा सघन खोज कर लिखी ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ पुस्तक प्रकाशन से
पूर्व ही तत्कालीन सरकार द्वारा जब्त किए जाने से उसके तेवर को कहती है तो विवेच्य ‘काला पानी’ उपन्यास
सावरकर के अंदमान बंदीगृह में अनुभूत सत्यों के साथ-साथ तत्कालीन सामाजिक
सन्दर्भों को यथा तथ्य रूप में उद्घाटित करने से विशिष्ट है | अंदमान की सिहरा
देने वाली त्रासद गाथा , बंदीगृह में दी जाने वाली क्रूर यातनाएँ ,भंयकर कैदियों
के आचरण के साथ-साथ अन्य देखे-सुने तथ्यों को भी कथानक में पिरोया गया है | सर्वप्रथम
अगस्त ,सन1936 से ‘मनोहर’ पत्रिका में इसके धारावाहिक प्रकाशन तथा सन 1937 में
प्रथम संस्करण के प्रकाशन का उल्लेख सन 2013 में प्रकाशित संस्करण के आमुख में बाल
सावरकर ने किया है | वहीं उन्होंने यह तथ्य भी रखा कि उपन्यास की कथा वस्तु निरी
कल्पित न होकर मिलते-जुलते नामों के साथ वास्तविक घटनाक्रम पर आधारित है | (का.पा.
आमुख ,पृ. 5)
उपन्यास के कलेवर को घटना चक्र का संकेत देते शीर्षक के साथ
22 प्रकरणों में विभक्त किया गया है | ‘मालती’ से ‘भाई बहन का मिलाप’ तक विस्तारित
कथानक का प्रारम्भ पितृ विहीना किशोरी मालती और उसकी माता रमा देवी के सुन्दर,
रुचिर वार्तालाप से होता है | यहीं फ़ौज में गए रमा देवी के पुत्र का लापता होना और
सहज धार्मिक प्रवृत्ति वश दोनों माता-पुत्री का स्वामी योगानंद के सत्संग हेतु
मथुरा प्रवास भी ज्ञात होता है | मालती के गायब होने , स्वामी योगानंद के कालेपानी
के भगोड़े रफीउद्दीन के रूप में गिरफ्तार होने ,मालती के गुलाम हुसैन के शिकंजे में
फँसने की मन को झकझोर देने वाली घटनाओं से रूबरू कराता उपन्यास सरल हृदय किशन की
सहायता से मालती द्वारा गुलाम हुसैन की हत्या जैसी परिस्थितियों पर आ खड़ा होता है |
मालती-किशन की गिरफ्तारी और कालेपानी की सजा के साथ उनका अंदमान का चालान कथानक को
गति प्रदान करते हैं | अन्य बंदियों के साथ अंदमान की यात्रा , वहां के आदिवासी जन
, बंदीगृह और वहाँ के लोग , मालती और किशन का स्त्री-पुरुष के निमित्त बने अलग-अलग
बंदीगृह में निवास , अंदमान की सामाजिक व्यवस्था की ओर इंगित करती कथा दोनों के
रफीउद्दीन से प्रतिशोध ,बन्दीगृह से पलायन और मालती के अपने खोए हुए भाई से मिलन
तक पहुँचाती है |
वस्तुतः ‘काला पानी’ उपन्यासकार के अनुभूत सत्यों का जीवंत दस्तावेज
है | यही कारण है कि नाम मात्र के उलटफेर के साथ चित्रित पात्र भी प्रायः वास्तविक
रूप में ही उपस्थित किए गए हैं | किशोरी सुन्दर, कोमलांगी मालती , उसकी माता रमा
देवी , अन्नपूर्णा देवी , नन्ही उषा और अनुसूया आदि स्त्री पात्रों को उनकी
सम्पूर्ण स्त्रियोचित विशेषताओं के साथ प्रस्तुत किया गया है | दूसरी ओर पुरुष-पात्रों
में समाज में विद्यमान विविध प्रकृति के चरित्र साकार हुए हैं | कुटिल योगानंद
उर्फ़ रफीउद्दीन , किशन , गुलाम हुसैन , हसन , बन्दीपाल , हवलदार , जमादार के
चित्र-विचित्र चरित्रों के साथ-साथ आजन्म कारावास भोग रहे सन 1857 के स्वातंत्र्य समर के वीर पुंगव
तात्या टोपे की सेना के योद्धा वृद्ध अप्पा जी का पराक्रमी चरित्र बड़े प्रभावी रूप
में चित्रित है | जिनका जय-मन्त्र है –
“ जय-पराजय का यदि किसी से वास्ता है तो वह पराक्रम से है न
कि न्याय से | याद रखो | रट लो यह शब्द पराक्रम | जय मन्त्र |” (का.पा., पृ . 167)
स्वाभाविक अच्छाइयों-बुराइयों के साथ तमाम चरित्र पाठक के मन-मस्तिष्क पर अपनी
अमिट छाप छोड़ने में समर्थ हैं |
सावरकर ने कथानक के माध्यम से तत्कालीन समाज की मनोदशा ही
नहीं वेश, परिवेश , स्थानों का वर्णन भी बहुत सजीवता से किया है | काशी की विजन
संध्या बेला में शांत बहती भागीरथी का भाषागत सौन्दर्य से परिपूर्ण चित्र देखिए-
“जिस तरह कोई महारानी दिन भर राज सभा स्थित सामंत, नृपतियों
,सेनापतियों, प्रधान मंडलों के मान-सम्मानों को राजसी शान से स्वीकारते-स्वीकारते संध्या तक थकी-हारी अपने
अन्तःपुर में आती है ,केश संभार मुक्त करती है , दप दप दमकते अलंकार ,जगर-मगर करती
वेशभूषा उतारकर बहुत ही साधारण सी धोती-चोली पहनती है ,फिर एकांत उद्यान में
निश्छलता के साथ फुलवारियों में स्वच्छंद विहार करती है ,पल में मंचक पर लेटती है ,
उसी तरह भागीरथी काशी नगरी के सार्वजनिक घाटों पर लाखों भक्तगणों ,राजा-महाराजाओं ,सैनिकों
,पुरोहितों,पंडों के पूजा-पुरस्कारों के टीम-टाम,ठाठ-बाट को स्वीकारती हुई अब साँझ
की बेला में इस एकांत विजन स्थल पर स्वच्छन्दतापूर्वक लहर-लहर बह रही थी |” (का.पा.,
पृ.67)
यद्यपि अंदमान के विषय में लेखक का कथन है –“इस विश्व में
आज भी भूमि के कुछ ऐसे अंश हैं जहाँ का भूगोल है,पर इतिहास नहीं | आज जिसे काला
पानी कहा जाता है ,अंदमान का वह द्वीप-पुंज भी इसी भूभाग में गिना जाना चाहिए|”
तथापि उपन्यास के पृ.121 से 133 तक प्रकरण 11 में लेखक ने अंदमान , वहां के
निवासियों , वनस्पतियों एवं जीव-जंतुओं पर पर्याप्त शोधपरक विवेचन प्रस्तुत किया
है | ‘उपनिवेशीय सिंद्धांत’ में वहां के जंगल तथा उद्यानों में केलि करते
रंग-बिरंगे,सुन्दर-सलोने पक्षियों का मनोरम चित्रण है |(का.प्., पृ.187 ) अंदमान
की जनजाति जावरों और उनके रहन-सहन पर भी पर्याप्त जानकारी उपलब्ध है |(का.पा.,पृ.217
से.. )
वस्तुतः इतिवृत्त के माध्यम से उपन्यासकार ने तत्कालीन सामाजिक
संदर्भो को रेखांकित करते हुए समाज में व्याप्त पाखंडों ,कुरीतियों पर भी प्रहार
किया है | धार्मिक अंधविश्वास की पराकाष्ठा और उसके दुष्परिणाम को लेखक ने
रफीउद्दीन के साथी किशन और हसन की स्वीकारोक्ति के माध्यम से कहा है | (का.पा. ,
पृ.53-62) सावरकर का राष्ट्रवाद तमाम धार्मिक आस्थाओं ,मान्यताओं के पालन के
साथ-साथ पूर्णतः सजग, सशक्त समाज के निर्माण का सन्देश देता है | प्रकरण-6
‘रफीउद्दीन का अंतरंग’ में अदालत में उन डाकुओं के मुकदमे की सुनवाई के सन्दर्भ का
उल्लेख करते हुए सावरकर कहते हैं – “ जिसे हम मानवता ,मनुष्यता कहते हैं वह एक
सजी-संवरी क्वेट्टा नगरी है | उसके नीचे भूचालीय राक्षसी वृत्तियों की कई परतें
फैली हुई हैं | मात्र दया ,दाक्षिण्य ,माया-ममता, न्याय-अन्याय की नींव पर ही यह
मानवता की क्वेट्टा नगरी उभारी जाने के कारण ,इस भरम में कि वह अटल –स्थिर –दृढ़
होनी चाहिए , जो लापरवाही से घोड़े बेचकर सोता है उसका सहसा ही विनाश होता है ,पूरा
राष्ट्र पलट जाता है |”(का.पा., पृ.52) सावरकर के अनुसार पतितोद्धार, उनका सुधार
आदि कार्य राष्ट्रीय अथवा धार्मिक सेवा के ही उपांग हैं |(का.पा., पृ.190)
उपन्यासकार ने मानव में स्वाभाविक रूप से विद्यमान मानवता के उन्नयन और दानवता के
दमन के लिए दया और दण्ड के औचित्य को प्रतिपादित किया (का.पा. , पृ.96,पं-25-26)
अप्पा जी और कंटक के वार्तालाप के द्वारा उपन्यासकार धर्मान्धता , जातिगत भेदभाव पर
न केवल प्रहार करते हैं अपितु इनके उन्मूलन, एक हिंदी मातृभाषा की स्वीकृति ,विधिवत
चिकित्सालय,मंदिर,विद्यालय के निर्माण हेतु आग्रह करते दिखाई देते हैं | सामरिक दृष्टि
से अंदमान के महत्त्व को सावरकर की दूर दृष्टि ने कितना पहले ही पहचान लिया था |
(का.पा., पृ.197)
बंदीगृह के कर्मचारियों के आचरण के माध्यम से तत्कालीन समाज
में व्याप्त भ्रष्टाचार को भी सावरकर की सजग लेखनी ने अनावृत्त किया है |
रफीउद्दीन गले की खांच में सोने के सिक्के छिपा कर कारागृह की दुर्दांत अपराधियों का ले-देकर अपने लिए समस्त
सुविधाएं जुटा लेना, काला पानी जैसे दण्ड से भाग जाना तब भी संभव हो सका था , और
आश्चर्य है ,आज भी संभव है | ऐसी सामाजिक अव्यवस्था के दुष्परिणाम सर्वथा निर्दोष
सामान्य जनों को भी ,या कहिए सामान्य जनों को ही भुगतने पड़ते हैं | लेखक के अनुसार
- “ मनुष्य केवल अपने ही अनुशासन का, पाप-पुण्य का तथा कर्माकर्म का फल नहीं भोगता
| इस प्रत्यक्ष जगत में उसे समाज के पाप-पुण्य का और कर्माकर्म का फल इच्छा न होते
हुए भी भोगना पड़ता है | उसे दूसरों के कृत्यों का फल ठीक उसी तरह भोगना पड़ता है
जैसे ताऊन (प्लेग) संक्रामक ,छूत की बीमारी में सिर्फ वातावरणीय संसर्ग से स्वस्थ
आदमी को भी उस रोग का कष्ट भोगना पड़ता है |”(का.पा., पृ.90)
सामाजिक व्यवस्था की विडम्बना पर लेखक चकित हैं | नर-पशु,
अत्याचारी गुलाम हुसैन की हत्या पर दोषी सिद्ध हुए मालती और किशन के प्रति उनका
दृष्टिकोण बहुत कुछ कहने में समर्थ है – “समाज की पीड़ा , अत्याचारों का जो विध्वंस
करता है ,वही कभी-कभी समाज-पीडक अत्याचारी के रूप में दण्डित होता है | नीति-नियमों
के असली अनुशासन का पालन करना ही अपराध सिद्ध हो जाता है और उसके लिए उसे अनुशासन
हीनता का फल भुगतना पड़ता है |” (का.पा., पृ.91) व्यक्तिगत मान-सम्मान से परे अखण्ड
राष्ट्रवाद के निमित्त अपने जीवन को समर्पित करने वाले ऐसे योद्धाओं को अपना आदर्श
बनाकर किया गया प्रयास ही राष्ट्र-हित में सार्थक प्रयास होगा | उपन्यास काल की भाँति
धर्मान्धता, पाखण्ड, अशिक्षा , भ्रष्टाचार ,लोभ और घात-प्रतिघात का गहरा, काला ,संकटों
का अथाह सागर, काला सागर आज भी जस-का-तस
विद्यमान है ,तो भी ‘काला पानी’ में गहरे
उतर समाधान के मोती पाना असंभव भी नहीं है !
अनिल कुमार शर्मा