बेदर्द , बेमुरव्वत होती हैं बारिशें
डूबे हुओं को और डुबोती हैं बारिशें
तरसे हुए दिलों को कभी यूँ ही छोड़कर
कैसे बड़े सुकून से सोती हैं बारिशें
दिन भर तपी हैं, धूप में जलती रही हैं जो
उन हसरतों का बोझ भी ढोती हैं बारिशें
रोते हुओं को खूब रुलाने के वास्ते
ये नासमझ सी और क्यों रोती हैं बारिशें
आने की हो खुशी कि जाने का गम यहाँ
आँखों को मेरी रोज़ भिगोती हैं बारिशें
आवाज़ वक्त की सुनी और साथ चल पड़े
झोकों को उन्हीं साथ संजोती हैं बारिशें
नन्ही सी छतरियों के साथ खेल-खेलकर
फिर खूब मस्तियों में भी खोती हैं बारिशें
डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
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