Sunday, 14 November 2021

170- बंदर की दुकान !

                                                                  बन्दर बैठा खोल दुकान  
लाया सब बढ़िया सामान 
कपड़े-लत्ते , पुस्तक, बरतन 
टॉफ़ी , केक , मिठाई 
देख-देख बिल्लू बिल्ले की 
तबियत कुछ ललचाई 
कैसे मुझको मिले मिठाई 
सोचे खूब लगाकर ध्यान 
बन्दर बैठा खोल दुकान 

बोला बिल्ला ज़रा मिठाई
चखकर देखूँ भैया 
बन्दर बोला चखने का भी 
होगा एक रुपैया 
पास नहीं धेला बिल्लू के 
टूट गए सारे अरमान 
बन्दर बैठा खोल दुकान 

भरी उदासी मन में ,बिल्लू 
लौटा मुँह लटकाकर 
बन्दर ने दी बालूशाही
तरस ज़रा सा खाकर 
बोला बिल्लू -भाईजान !
कल लाऊँगा मीठा पान !
तेरी बढ़िया बहुत दुकान !


डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा  

                                                                    (चित्र गूगल से साभार)






Sunday, 31 October 2021

169-अनुभूतियों की सुन्दर यात्रा




आज पढ़िएगा छत्तीसगढ़ के सुविज्ञ साहित्यकार श्री रमेश कुमार सोनी जी द्वारा  मेरे हाइकु-संग्रह 'ओस नहाई भोर' की समीक्षा- 



अनुभूतियों की सुन्दर यात्रा-

                  हिंदी हाइकु अपनी साहित्यिक यात्रा में इतनी जल्दी अपनी लोकप्रियता के पंख पसार लेगा इसकी उम्मीद किसी ने नहीं की थी लेकिन इसकी सूक्ष्मता में भावों एवं अनुभूतियों की विशालता ने प्रायः सभी रचनाकारों को हाइकु के पक्ष में खड़ा किया. हिंदी हाइकु को विस्तार देने और इसकी पहचान बनाने में डॉ.सुधा गुप्ता जी के योगदान को रेखांकित करना होगा क्योंकि इन्हीं के संग्रहों को बाँचते हुए शेष रचनाकारों ने हाइकु की पंक्ति लम्बी की,वर्तमान में इस कार्य को रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशुजी प्रशंसनीय रूप से निभा रहे हैं. हाइकु ने विविध देशों में हिंदी की पताका फहराने का कार्य भी बखूबी किया जब इसके वेबसाईट-‘हिंदी हाइकु पर लोगों ने इसे रचने की प्रक्रिया को सीखा-जाना. हिंदी हाइकु में अब जापान से आयातित सिर्फ ढाँचा यानि-5,7,5 वर्ण में तीन पंक्ति का रह गया है, शेष का पूरी तरह से भारतीयकरण हो चुका है. कई विषयों पर अब तक, हाइकु के ढेरों एकल एवं सामूहिक संग्रह इन दिनों नवलेखकों के मार्गदर्शन के लिए उपलब्ध हैं. हिंदी साहित्य अब सोशल मीडिया पर अपने हाइकु परोसते हुए खुश है लेकिन इन सबके बीच हम सभी वरिष्ठ हाइकुकारों को यहीं पर सावधान रहने की भी आवश्यकता है कि कहीं हाइकु के नाम पर साहित्यिक कचरा हमें परास्त ना कर दे.  

                    हिंदी हाइकु की सूक्ष्मता अब भी कई साहित्यकारों को पहेली जैसी लगती है लेकिन जिसने भी हाइकु का दामन थामा उसने अपनी अनुभूत संवेदनाओं को रचने में महारत हासिल कर ली इसी क्रम में एक नाम है-डॉ.ज्योत्स्ना शर्मा का जिनका पहला हाइकु संग्रह-‘ओस नहाई भोर को बाँचने का मुझे सौभाग्य मिला है. इस संग्रह में कुल 490 हाइकु हैं जो इन उपशीर्षकों के अंतर्गत प्रस्तुत हुए हैं-1.करूँ नमन!,  2. प्रकृति-सखि!, 3. कैसा कुचक्र?, 4. सुधियों की वीथिका , 5.बिखरा दूँ कलियाँ , 6.नवल किरण एवं 7. विविध रस-रंग। इस संग्रह के हाइकु आपकी जीवन यात्रा के सहचर बने हुए हैं जिन्हें आपने विविध समयों पर रचा, इन्हें पढ़ते हुए कहीं भी नहीं लगा कि यह आपका प्रथम संग्रह है. इस संग्रह में आपके भाषा कौशल की सुष्ठुता, कोमलता,तो कहीं प्रकृति के स्थान पर अपने आपको रखकर महसूस करने के भावों को हाइकु के मनके के रूप में पिरोने का श्रमसाध्य कार्य स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है, इनको रचते हुए आपने अपनी शिक्षा को भी सार्थक किया है.   

                      इस संग्रह का शुभारम्भ आपके हाइकु -पद्मासना की आराधिका और कान्हा की बावरी होती हुई-करते हैं जो आगे बढ़कर इस संसार के ईश्वर रूपी-माता एवं गुरु की महिमा को नमन करते हुए विस्तारित हुए हैं; इस खंड के हाइकु अध्यात्म से ओत-प्रोत हैं तथा माता और गुरु की महत्ता का बखान करते हुए उनकी शीतल छाँव में एक अलाव जलाने की कोशिश है-

करूँ नमन/माटी को भी सद्गुरू/करें चन्दन।

स्पर्श तुम्हारा/पीड़ा के सवालों का/हल है प्यारा।

                  हाइकु मूलतः प्रकृति के वेश में भली लगती है बिलकुल सजीली दुल्हन सी,प्रकृति का वर्णन इतना आसान भी नहीं कि बस कमरे में बैठा और लिख लिया; इसके लिए प्रकृति के साथ हमें जीना होता है और इस हेतु आपको भोर में उठना भी होगा तभी आप इतने सुन्दर दृश्य को अनुभूत करते हुए हाइकु में पिरो सकेंगे. इन हाइकु के शब्द जो संकेत में कह रहे हैं जो मानवीयकरण हम यहाँ महसूस कर रहे हैं ये अद्भुत है-

भोर किरन/उतरी है धरा के/छूने चरन।

धूप नागरी/पल-पल बदले/रूप बावरी।

दिशा-वधूटी/लो हो गई लाज से/भोर गुलाबी।

संदेशे लिखे/चाँदनी में डुबोके/निशा भोर के।

             भोर के साथ ही साथ हर दिन साँझ के आँचल में अपना शीश टिकाकर विश्राम पाती है लेकिन यह दृश्य भी भोर से कम नहीं होता हाँ, यहाँ भोर के जैसी ताजगी तो नहीं होती बल्कि होते हैं -अपनों का इंतजार, दिन के किस्से सुनने की बेताबी....और रात को न्यौता देते पूजा-अर्चना. संध्या सुंदरी का वर्णन करते हुए आपके हाइकु लजाते हुए प्रस्तुत हुए हैं-

संध्या सुंदरी/सुनहरी अलकें/खोले पवन।

जोगन सँझा/बैठी बैराग लिये/पंथ निहारे।

रात सलोनी/अलबेली मालिन/लाई कलियाँ।

रजनी बाला/कहाँ खोया है बाला/हँसिया वाला।

              बागों में अपनी और दूसरों की सुनते हुए टहलना हर किसी को सुहाता है लेकिन इन सबके बीच माली का परिश्रम और तितली-भौरों की चुहलबाजी पुष्पों के साथ एक नया और अद्भुत रंग जमाती है. बागों को वसंत रंगता तो है लेकिन इनसे होकर गुजरने वाली हवाओं की शोखियों के किस्सों का स्त्रियों की वर्तमान दशा के साथ यहाँ आपने तुलना की है,आपके हाइकु यहाँ संकेत में बहुत कुछ कहते हुए प्रकट हुए हैं-

पहने खड़ी/फूलों-भरी बगिया/काँटों के हार।

शोर न कर/सोई है नन्ही कली/नादान हवा।

मुस्काई कली/हो गई बदनाम/चर्चा है आम।

आवारा हवा/सिटी बजाते डोले/रोके न रुके।

            मेघों की आवारगी किसी से छिपी नहीं है कहीं कोई सूखे खेत राह ताकते हैं तो उसे ठेंगा दिखाकर ये लौट जाते हैं बिना बरसे, तो कभी अपनी रौद्र रूप दिखाकर जलप्लावन कर देते हैं,गाँव -शहर के साथ ये बहा कर ले जाते हैं लोगों के खेत,घर और सपने. मेघ को हवाएँ अपने कंधों पर इन्हें बिठाए सैर कराते रहती हैं लेकिन पहाड़ों पर भी विश्राम के पल में इनकी धमाचौकड़ी तबाही मचा कर ही छोड़ती है. इन सबके बावजूद लोग मेघ बुलाते हैं-पानी के लिए,मयूर नाचते हैं,लोग भीगते हैं और आपके जैसा कविमन इन्हीं बूँदों की अठखेलियों को हाइकु में समेट लेता है. इन सब हाइकु में मेघ और वर्षा के कई दृश्य एक साथ हैं इन्हें महसूस करिए-

कित्ता गुर्राए/बरसे न बूँद भी/ढोल बजाए।

मेघ महान/आएँ,बरसें,रोपें/खेतों में धान।

बूँद बरसीं/छनकीं हैं यादें भी/पैंजनियाँ सी।

नन्हीं बुंदियाँ/लेके हाथों में हाथ/नाचती फिरे।

निर्मोही चंदा/बदरी-संग खेले/आँख-मिचौली।

सोच न पाऊँ/बरखा री! कपड़े/कहाँ सुखाऊँ।

सूरज थका/डूब-डूब नहाए/गहरे नीर।

               वर्तमान समय की सबसे बड़ी त्रासदी प्रदूषण का दानव है जिसे आधुनिक जीवन शैली ने जन्मा है अब इससे बचने और इसकी व्यथा को आमजन तक पहुँचाने का बीड़ा यहाँ हाइकुकार ने उठाया है.आपने प्रदूषण की समस्या और समाधान का आईना समाज के समक्ष जोरों से उठाया है. पानी और आक्सीजन की कमी से जूझती एक बड़ी आबादी को हमने देखा है इसलिए पेड़ लगाने और पानी बचाने का सन्देश जनहित में है-

नाचेगा मोर?/बचा ही न जंगल/ये कैसी भोर?

काटें न वृक्ष/व्याकुल नदी-नद/धरा कम्पिता।

बादल धुआँ/घुटती-सी साँसें हैं/व्याकुल धरा।

कितना शोर/कोई तो समझाए/राम बचाए।

जल-जीवन/जाने हैं तो माने भी/सहेजें घन।

रहे अक्षत/धरती की चूनर/ओज़ोन पर्त।

                 प्रत्येक के जीवन में उनकी यादों का गुल्लक कभी नहीं भरता यह बहुत भूखा होता है-प्यार और स्नेह का, चाहे वह रिश्तों से मिले या समाज से. यादें हम सबकी अपनी धरोहर भी होती हैं जो बुढ़ापे में काम आती हैं-बच्चों के किस्सागोई के लिए. इस खंड के हाइकु सशक्त हैं और जीवन के हर पड़ाव की खुशियों एवं  व्यथा को समेट कर ले आए हैं. इनमें हमें मिलेगा-ब्याह की ख़ुशी और गम,मायके की यादें, माँ बनने के दर्द में ख़ुशी, सखियों एवं भाई की यादें...आदि. आप भी इस खंड के हाइकु में अपनी खुशियों और यादों को खोजने का प्रयत्न करिए-

कनी रेत की/सहे सीप में पीड़ा/बनेगी मोती।

यादों की बस्ती/हर घर पे लिखा/तेरा ही नाम।

सुन रे मन!/आँसू और मुस्कान/यही जीवन।

बर्फ़ थे रिश्ते/यादों के अलाव/दे गए ताप।

                   भारतवर्ष अपने उत्सवों के लिए जाना जाता है, जितनी ऋतुएँ उससे भी ज्यादा उमंग-ख़ुशी और विविध स्मृतियों से जुड़े उत्सव सबके रंग निराले और हम सबने इसके साथ-साथ अपना-अपना समय बिताया है इसलिए ये अब ये यहाँ साहित्यिक उत्सव लेकर प्रस्तुत  हुए हैं. इन हाइकु में हमें दर्शन करने को मिलेगा-होली,दिवाली,राखी,गौरा पूजा,...औरअन्य त्यौहारों की उमंग,इसके शुभ सन्देश और उजास भावनाओं का प्रवाह –

चुन लूँ काँटे/तेरे पथ से साथी/खिलें बहारें।

रेशमी स्पर्श/मन्त्र अभिसिंचित/पुष्प वज्र-सा।

चाह युगों की/जले दीप से दीप/ज्योति पर्व हो।

               बाल्यकाल सदैव से ही ईश्वर की लीलाओं की तरह ही अब भी यहाँ निभाया जाता है जो हम सबकी खुशियों को बढ़ाने ही आता है वैसे भी दुनियावी चिंता से मुक्त ये अवस्था हम सबके लिए निश्च्छलता और भोलेपन को परिभाषित करता है. हमें इन हाइकु में दर्शन होंगे-कोमलता,सरल-सहज भाषा,बच्चों के खेलकूद , चंदा मामा, मिट्ठू ,धौली गाय और ...मोर नृत्य. ये हाइकु इस संग्रह के सबसे अच्छे हाइकु हैं-

दे दाना भैया/चुनमुन चिरैया/करे ता-थैया!

कितनी प्यारी/घूम-घूम झालर/फ्रॉक हमारी।

मछली रानी/डूब, डूब देख आ/कित्ता है पानी?

           विविध दृश्यों से गुजारते हुए ये हाइकु हमें अपने अंतिम पड़ाव में लेकर आते हैं जहाँ हमें अपने वर्तमान के दर्शन होते हैं जो हमारे ही भूतकाल के किए हुए कृत्यों का परिणाम हैं. इस खंड में हैं-गाँव की यादें,शहर से तुलना,लोभी मानव...और चुनाव. इन हाइकु की शब्दशक्ति को परखिए कि ये कितनी सहजता से अपनी सामाजिक विषमता को हमारे समक्ष आईना की तरह प्रस्तुत कर रहे हैं-

रोया है नीम/बाँट दिए आँगन/माँ तकसीम।

बँटा समाज/चलती हैं गोलियाँ/मेड़ों पे आज।

विकास दूर/हुआ ग्राम्य जीवन/नशे में चूर।

बगिया मौन/नफ़रत के बीज/बो गया कौन?

                   प्रथम संकलन के अनुसार आपकी लेखनी ने आपके हाइकु को भटकने से रोका हैं, आपकी शब्दशक्ति और भावों को संकेतों के रूप में प्रस्तुत करने की कला आपके इस संग्रह को विशिष्ट बनाती है साथ ही ये उम्मीद भी जगाती है कि आपमें एक बेहतरीन हाइकुकार की सभी संभावनाएँ छिपी हुई हैं.

इस संग्रहणीय एवं पठनीय अंक की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ-

बीता है कल/आज को भी जाना है/फिर आना है।

दूँ शुभेच्छाएँ/फलित कामनाएँ/सब हो जाएँ।   



                                          

 

                                      

2021

रमेश कुमार सोनी

कबीर नगर-रायपुर (छत्तीसगढ़ )

7049355476  / 9424220209

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ओस नहाई भोर-हाइकु संग्रह , डॉ.ज्योत्स्ना शर्मा

अयन प्रकाशन-दिल्ली, सन-2015 , मूल्य-240/-रु. , ISBN; 978-81-7408-808-6

भूमिका-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु , फ्लैप-डॉ.सुधा गुप्ता-मेरठ

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Saturday, 23 October 2021

168- जीवन पथ पर !




1.

वही बस वही तो उजालों में आए
कि, जिसने अँधेरों में दीपक जलाए ।

ये रस्ता कहाँ से कहाँ जा रहा है 
जिसे खुद पता हो वही तो बताए ।

गिरा बिजलियाँ आशियाने पे मेरे
वो पूछें हुआ क्या है बैठे-बिठाए ।

इरादों का उनके पता ही चला जब 
रुलाकरके हमको वो खुद मुसकुराए।

करे माफ रब भी सुबह का जो भूला 
ढले शाम जब अपने घर लौट आए 

सरल है बहुत बात पर बात कहना 
सही है तभी, काम करके दिखाए ।

2.

नभ को रंग बदलते देखा 
सूरज उगते-ढलते देखा ।

जीवन-पथ पर पथिकजनों को 
गिरते और सँभलते देखा ।

जिसका कोई मोल नहीं ,वह 
सिक्का खूब उछलते देखा ।

उजले-उजले परिधानों में 
अँधियारों को पलते देखा ।

जिनके सिर औ' पैर नहीं थे
उन बातों को चलते देखा ।

बेबस आँखों के दरिया में 
इक तूफान मचलते देखा।

तनिक ताप से हिमखंडों को 
धीरे-धीरे गलते देखा ।



डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा 

 





Tuesday, 19 October 2021

167-बलिहारी जाऊँ !


 


चले उधर ही जिधर चलाऊँ
मैं उसपर बलिहारी जाऊँ
चाल अनोखी ,चले अगाड़ी
क्या सखि साजन, ना सखि गाड़ी !1

*****************

कभी हँसाए कभी रुलाए
दूर-दूर की सैर कराए
जब भी देखूँ लगता अपना
क्या सखि साजन, ना सखि सपना !2

*****************

छीन ले गया चूनर मेरी
इधर-उधर की मारे फेरी
पीछे आए घर के अन्दर
क्या सखि साजन ना सखि बन्दर !3

*****************

मुझ सा बनकर सम्मुख आए
मैं मुसकाऊँ वो मुसकाए
सब कुछ मेरा उसपर अर्पण
क्या सखि साजन, ना सखि  दर्पण!4

******************

मधुर भाव हैं बड़ा रसीला
करे कभी नयनों को गीला
जाने महफिल खूब जमाना
क्या सखि साजन, ना सखि गाना !5

******************

कैसे काम करूँ मैं पूरा
सब कुछ उसके बिना अधूरा
उस बिन इक पल चले न जीवन
क्या सखि साजन, ना ऑक्सीजन !6

************************

यूँ तो अक्सर बोले जाए
दुनिया भर की बात सुनाए
कभी चिड़ाए धरकर मौन
क्या सखि साजन ,नहीं सखि  फोन!7

******************

उसपर अपनी जान लुटा दूँ
उसकी खातिर जहाँ भुला दूँ
भरे भाव की पावन गंगा
क्या सखि साजन, नहीं तिरंगा !8

******************

दम-दम दमके रूप सजाए
लगे गले तो मन हर्षाए
यूँ मन पर जादू कर डाला
क्या सखि साजन, ना सखि माला !9

******************

यूँ तो है वह बिल्कुल काला
नैन बसे  ने जादू डाला
ज़रा चरपरा करता घायल
क्या सखि साजन, ना सखि काजल !10

******************

डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा 

(चित्र गूगल से साभार)








Monday, 4 October 2021

165- नभ के रंग


 


1
बढ़े तपिश
समाने लगे फिर
बिन्दु में सिंधु ।
2
आई जो आँधी
लो तिनका-तिनका
हुआ बसेरा ।
3
नन्ही चिड़िया
चाहती सहेजना
आँधी में नीड़।
4
गर्द उड़ाती
गिरा देती है आँधी
अकड़े पेड़।
5
स्याह दुशाला
आती है ओढ़कर 
देखो तो आँधी।
6
बूँदे झरतीं
किसी ने किसी पर
मिटा दी हस्ती ।
7
कैसी मोहनी
बादल चल दिए
आँधी के संग ।
8
नभ के रंग
टुकुर-टुकुर ही
देखती धरा।
9
अच्छा या बुरा
देखने नहीं देती
इश्क की आँधी ।
10
निहारे जो वो 
ज़रा प्यार से फिर 
खिले बहार ।

डॉ.ज्योत्स्ना शर्मा

( चित्र गूगल से साभार)



Thursday, 30 September 2021

164- भूले गले लगाना !


 

                  चंदा-सूरज

                मुट्ठी में बाँध लिए 

                सागर सारे

                पर्वत नाप लिए 

                अँधियारों पे

                विजय पा गए  हो

                उजालों में क्यूँ

                यूँ भरमा गए हो ?

                हवा, धूप भी

                दासियाँ हों तुम्हारी

                ममता नहीं

                स्वर्ण की आभ प्यारी

                ऊँचे भवन

                सारा सुख खजाना

                खुशियों भरे

                प्रीत के गीत गाना

                व्यर्थ ही तो हैं

                दे ही ना पाये जब

                माता-पिता को

                तुम दो वक्त खाना

                भूले गले लगाना ।


डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा 

(चित्र गूगल से साभार)












163- क्या पूछो हो !

 



क्या पूछो हो ' याद हमारी आती है ' ?
आएगी क्या , दिल से कब ये जाती है

रौशन है लेकिन धुँधला सा दिखता है
इक बदली जब सूरज पर छा जाती है

मर्यादा में बहे तो नदिया अच्छी है
तोड़े जो तटबंध ,प्रलय फिर ढाती है

ख्वाहिश का संसार अगर छोटा रख लो
सच मानों फिर दुनिया बहुत सुहाती है

चलते-चलते गिर जाओ तो उठ जाओ
अक्सर ठोकर रस्ता सही दिखाती है 

तनिक सफलता पर खुश होना ठीक नहीं
बनते-बनते बात बिगड़ भी जाती है

डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा

(चित्र गूगल से साभार)

Monday, 12 July 2021

162-प्रेम की नदी

 



1
पंक में जन्मे
बन नहीं पाते हैं
पंकज सभी ।
2
न्याय की देवी
सबूतों , गवाहों के
वश में रही ।
3
बादल छाए
टर्राते हैं दादुर 

नाचेें मयूर ।

4

चंचल नदी

सागर से मिलके
हो गई शान्त ।
5
चंचल नदी
शान्त हुई ,आखिर-
सिंधु से मिल ।
6
जाती है मिट
यायावरी बूँद की
सिंधु से मिल ।
7
करते यहाँ
उगते सूरज को
नमन सभी ।
8
बही थी कभी
भरी-भरी जल से
प्रेम की नदी ।
9
नदी तो बही
उसके ही किनारे
मिले न कभी ।
10
चला न पता
वृक्ष पर छा गई
अमरलता ।

11

प्रभु की माया
कहीं कड़ी सी धूप
कहीं है छाया।
12
बड़ी , गहरी
झील में था शिकारा
एक , बेचारा !
13
भ्रमजाल में
फँस, छटपटाती
मन की मीन ।
14
खेल के ऊबा
माँगता रहे बच्चा
नया खिलौना ।
15
अठखेलियाँ
करे मीन जल में
दूर, तड़पे।
16
दूर रहते
पशु पहचानते
विषाक्त पत्ते ।
17
नहीं खेवैया
बहती जाती नैया
धारा के संग ।


डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा 

(चित्र गूगल से साभार)




Friday, 28 May 2021

161-ताऊ जी












आज पढ़िएगा ....चारों ओर फैली बेचैनियों के बीच एक हल्की- फुल्की रचना - 


दिन भर कितना लाड़ लड़ाते ताऊ जी 

नई कहानी रोज़ सुनाते ताऊ जी ।


भूलें चाहे पापा जी टॉफ़ी लाना 

दूध जलेबी खूब खिलाते ताऊ जी ।


चाचा कहते पढ़ ले, पढ़ ले , ओ मोटी ! 

उनको अच्छे से धमकाते ताऊ जी ।


कठिन पढ़ाई जब भी मुझको दुखी करे 

बड़े प्यार से सब समझाते ताऊ जी ।


छीन खिलौने जब भी भागे है भैया

कान खींचकर उसको लाते ताऊ जी ।


माँ-पापा संग शहर में आई हूँ लेकिन

याद बहुत ही मुझको आते ताऊ जी।

('जय विजय' के मई, 21 अंक में)

Jyotsna Sharma

Monday, 24 May 2021

160-आँखों में सपनों की महफिल

 




छोड़ो भी अब तो नादानी
मत छेड़ो वह तान पुरानी।

उड़े न चिड़िया अमन-चैन की
डालो इसको दाना पानी।

प्रेम- मुहब्बत के रंगों से 

दुनिया की तस्वीर सजानी ।

ठान अगर तुम लोगे मन में
मुश्किल भी होगी आसानी ।

चोट बहुत पहुँचाया करती
ये अपनों की नाफ़रमानी ।

मिल जाएँगे जब दिल से दिल
बात बनेगी तब लासानी ।

आँखों में सपनों की महफिल
दिल में यादें ,दिलबर जानी !

डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा 

(चित्र गूगल से साभार)




Friday, 9 April 2021

159- सारा आकाश !

 












मन में शोर
भागी है उठकर
नैनों से नींद ।1

****

पक्की दीवार
कीलों की फितरत
जाती है हार !2

****

ऊषा मगन
ले मोतियों के हार
करे शृंगार !3

****

थामो कमान
तरकश से तीर
स्वयं न चलें ।4

****

काव्य-कुसुम
प्रेम की सुगंध में
भीगे-से शब्द !5

****

रहे अछूता
विकट विकारों से
भाव-भवन ।6

****

उड़ी पतंग
नाच रही नभ में
डोर बँधी है ।7

****

फिक्र में जागे
नयनों में सपने
नहीं सजते ।8

****

दिया उसने
बाहों में भरकर
सारा आकाश ।9

****

डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा

Tuesday, 6 April 2021

158-किरणों की आहट

 


क्षणिकाएँ : डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा

1
हैरान जंगल !
सालों-साल तो
बाज और भेड़ियों ने
अपना कानून चलाया
गिद्धों ने नोच-नोच खाया
इलज़ाम मोरों पर आया । 


2
अपमार्जक !
उदास हैं गिद्ध
कुछ कह नहीं पाते हैं !
कह सकते तो कहते-
ये मनुष्य
इलज़ाम हम पर क्यों
लगाते हैं
हमने कहाँ मारा
ज़िंदा प्राणियों को, 
हम तो मुर्दों को खाते हैं ! 


3
गरीबी, भूख,
फाक़ाकशी पर
क़ौम के आका
व्यवस्था से
इस क़दर गुस्सा खा गए
कि, बच्चों के हाथों में
बन्दूकें थमा गए ।


4
लो हो गया इन्साफ !
निर्दोष बरी भँवरा ,
उसका कोई दोष
नहीं पाया गया ।
धूर्त कलियों द्वारा
अपनी महक से
खुद ही लुभाया गया ,
पास बुलाया गया ।


5
कितनी अच्छी है वो !
मैं उससे .....
देर तक बतियाती रही
....और प्यारी तन्हाई
मेरी हाँ मे हाँ मिलाती रही ।


6
सुखद होता है
मित्रों से मिलना !
इसका
प्रमाण मिल गया
जब
किरणों की आहट से
फूलों का
चेहरा खिल गया....... 😊
डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
( चित्र गूगल से साभार)

Saturday, 27 March 2021

157- खुशी के रंग !







 


दिल से दिल का जुड़े गुलाबी तार होली में
हो खुशियों के रंगों की बौछार होली में ।

सतरंगी सपने जो देखे तरसे नयनों ने
सच हो जाएँ सब के सब इस बार होली में !

*****************************

आया है रंगीला मौसम ,

कैसा छैल-छबीला मौसम ।


सब्ज धरा के अंग -अंग पर ,

लाल, गुलाबी , पीला मौसम ।


बागों में बौराया डोले , 

सुन्दर , खूब सजीला मौसम ।


आकर बैठ गया धरने पर ,

देखो आज हठीला मौसम ।


आँखों में अक्सर रहता है ,

सूखा कभी पनीला मौसम ।


लो देखो फिर से आया है ,

वादों का नखरीला मौसम ।


वो देखें तो मुझपर छाए ,

जाने क्यों शर्मीला मौसम ।


('उदंती' में प्रकाशित )


डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा

Wednesday, 10 March 2021

156- दमके निरंजना माँ बिंदिया ये माथ की !


                                                                           जय भोले नाथ !!!


                                                    मधुर मिलन घड़ी भोले जी के साथ आज ,
                                                    दमके निरंजना माँ बिंदिया ये माथ की |
                                                    घोट-घोट भाँग यहाँ भूत-प्रेत छान रहे ,
                                                    पिस रही मेंहंदी भी हरी हरी हाथ की |
                                                    कलियों के गजरों से गौरा मात सज गईं ,
                                                    सोम,सर्प पाए हैं विशेष द्युति साथ की |
                                                    बाजते मृदंग संग डमरू भरें उमंग ,
                                                    चल दी है देखिए बारात भोले नाथ की ||

                                                   डॉ.  ज्योत्स्ना शर्मा 

Sunday, 7 March 2021

155- कभी चाँदनी ....


 (चित्र गूगल से साभार)

भला क्या बताऊँ ,कि, 'आखिर मैं क्या हूँ' ?

नदी हूँ , हवा हूँ , हया हूँ , अदा हूँ ।


कभी चाँदनी तो कभी अग्निधर्मा-
किरण हूँ, अँधेरे में जलता दिया हूँ ।

सुमन हूँ , सुधा हूँ , सृजन-साधना मैं ,
गरल हूँ मैं ,कंटक ,कहीं सर्वदा हूँ ।

कदम दर कदम मैं चली थी सँभलकर ,
मगर मुश्किलों का मुकम्मल पता हूँ ।

ज़रा ध्यान से जो सुनोगे मुझे तुम ,
तुम्हारे ही दिल की तुम्हारी सदा हूँ ।

भला अपनी पहचान मैं क्या बताऊँ ,
मरज हूँ , मरीजा हूँ , खुद ही दवा हूँ  ।

समझ है तुम्हारी कहे 'ज्योति' क्या अब ,
बहन-बेटी हूँ , संगिनी , माँ , प्रिया हूँ ।

डॉ.ज्योत्स्ना शर्मा 

Monday, 15 February 2021

154- जय माँ शारदे

 

                                (चित्र गूगल से साभार)


                    वागीश्वरी ! हे हंसासना माँ !
                  अर्चन तेरा ,हम करें साधना माँ !

                    तू स्वर की जननी , सुरों से सजा दे
                    चलें जिसपे वो सत्य का पथ दिखा दे
                    निराशा के छाने लगें जब अँधेरे
                    आशा की किरणें हृदय में जगा दे
                    उजालों की तुझसे करें याचना माँ !
                    अर्चन तेरा ••••••

                    दुखी , तप्त जीवन को खुशियों से भर दे
                    जला ज्ञान का दीप उजियार कर दे
                    बजे राग-वीणा , हो हर साँस रसमय
                    स्वर लेखनी को तू इतना मधुर दे
                    मिलकर करें तेरी आराधना माँ !
                    अर्चन तेरा हम करें ••••••

                    जगत के लिए हो जो कल्याणकारी
                    निष्ठा रहे नित उसी में हमारी
                     मिटे वैर, माँ द्वेष का लेश हो न
                    परस्पर कहीं भी कोई क्लेश हो न
                    सदा स्नेह से हो भरी भावना माँ !
                    अर्चन तेरा हम करें साधना माँ

                    वागीश्वरी ! हे हंसासना माँ !
                    अर्चन तेरा ,हम करें साधना माँ !

                             डॉ ज्योत्स्ना शर्मा 

                                 वसंत पंचमी 

Monday, 1 February 2021

153- एक ही नारा !


        (चित्र गूगल से साभार)

मिलें हमें अधिकार हमारे , बोलो जी ,सरकार कहाँ है ?

फ़र्ज़ निभाने उसको सारे , बोलो जी , सरकार कहाँ है ?


गंदी सड़क ,पटा है नाला, बोलो जी , सरकार कहाँ है ?
बरसे एसिड , अम्बर काला , बोलो जी , सरकार कहाँ हैं?

धरती हिलती , सागर रोया, बोलो जी , सरकार कहाँ है ?
पर्वत ने अपना धन खोया , बोलो जी , सरकार कहाँ है ?

बैंक माँगते वापिस कर्जा, बोलो जी , सरकार कहाँ है ?
तुरत विपक्ष सड़क पर गरजा, बोलो जी, सरकार कहाँ है ?

जाम उड़ाते ससुर-जँवाई , बोलो जी, सरकार कहाँ है ?
भाई से लड़ता है भाई, बोलो जी , सरकार कहाँ है ?

बेटा हो गया निपट नशेड़ी , बोलो जी , सरकार कहाँ है ?
मेहनत के हाथों में बेड़ी , बोलो जी , सरकार कहाँ है ?

लौकी रात-रात में बढ़ती , बोलो जी , सरकार कहाँ है ?
बेटी को रम ज़रा न चढ़ती , बोलो जी , सरकार कहाँ है ?

सास-बहू में हुई लड़ाई, बोलो जी , सरकार कहाँ है ?
शिष्य गुरु पर करे चढ़ाई, बोलो जी , सरकार कहाँ है ?

भोले बन गए गुरु-घंटाला , बोलो जी , सरकार कहाँ है ?
फसल अकल की ,पड़ा है पाला, बोलो जी ,सरकार कहाँ है ?

कहीं भी कुछ हो ,एक ही नारा , बोलो जी ,सरकार कहाँ है ?
यही पूछना काम हमारा , बोलो जी , सरकार कहाँ है ?

डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
1.2.21

Monday, 25 January 2021

152- जय जनतंत्र हमारा ! जय गणतंत्र हमारा !


 🌷🙏🌷 गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ 🌷🙏🌷


 कण-कण मुग्ध करे मन-मानस

बहे प्रेम की धारा !

जय जनतंत्र हमारा !  जय गणतंत्र हमारा !


उन्नत मस्तक शिखर हिमालय

मात वैष्णों ,अमर शिवालय

सुंदर झील, नदी-नद न्यारे

श्री ,कश्मीर सभी को प्यारे

हिम कण बरसें, कहीं मोहता

फूलों भरा शिकारा

जय जनतंत्र हमारा ! जय गणतंत्र हमारा !


फूलों की घाटी मन भावन

सागर तीर्थ सुपूजित पावन

राम ,कृष्ण से धन्य धरा है

बुद्ध ,विवेक ,महावीरा है

पाठ अहिंसा का देकर फिर

अप्पो दीप पुकारा

जय जनतंत्र हमारा ! जय गणतंत्र हमारा !


गाँधी और सुभाष वीर ने

सुख ,बिस्मिल,आज़ाद धीर ने

भगत सिंह ,झाँसी की रानी

कितने ही अनगिन बलिदानी

सुत अश्फ़ाक ,अब्दुल हमीद ने

अपना जीवन वारा !

जय जनतंत्र हमारा ! जय गणतंत्र हमारा !


वेदों का विज्ञान न भूलो

भाभा और कलाम न भूलो

दुर्गा ,इन्दिरा और सुनीता

हुई कल्पना परम पुनीता

सकल जगत में धूम ,तिरंगे-

का सम्मान सँवारा !

जय जनतंत्र हमारा ! जय गणतंत्र हमारा !

~~~~~~ॐ~~~~~~


Jyotsna Sharma

Sunday, 24 January 2021

151-खिलें कलियाँ !


                         चित्र  गूगल से साभार 

🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷


मुझे अपने दिल की पनाहों में रख लो ,

इरादों में , वादों में , चाहों में रख लो ।

अगर प्यार हूँ , ख्वाब हूँ मैं तुम्हारा ; 

न तोड़ो मुझे बस निगाहों में रख लो ..... 


🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷


समस्त बालिकाओं को बालिका दिवस पर सुन्दर, सुरक्षित जीवन की शुभकामनाओं के साथ 


Jyotsna Sharma

Friday, 22 January 2021

150- अमर ,अटल वह ध्रुव तारा !


               खून के बदले आज़ादी देने का जिसका था नारा 

               मातृभूमि का वीर सिपाही हर इक दिल का है प्यारा 

               'जय हिन्द' उद्घोष को सुनकर जिसके ,वैरी थर्राया
                
               भारत के अम्बर पर चमका अमर ,अटल वह ध्रुव तारा !

                 ************************************

                तुमको पथ से डिगा सके वो तीर यहाँ नाकाम हुआ
 
                द्वेष-कपट से भरा हुआ बल वैरी का निष्काम हुआ 

                कोटि-कोटि नतमस्तक ,गूँजे 'अमर रहो' के जयकारे 

                जिसमें तुमने जन्म लिया है वह घर तीरथधाम हुआ ।
                             
                                          
23.1.21