खोई हरी टेकरी’( पर्यावरण -हाइकु):
डॉ. सुधा गुप्ता। प्रकाशक:पर्यावरण शोध एवं शिक्षा संस्थान,506/13
शास्त्रीनगर मेरठ-250004; पृष्ठ :64 ; मूल्य: 80 रुपये , संस्करण:2013
डॉ ज्योत्स्ना शर्मा
साहित्य समाज का दर्पण ही नहीं अपितु सचेतक और मार्ग दर्शक भी है |
तीनों ही विशेषताओं को आत्मसात किये आदरणीया दीदी सुधा अग्रवाल जी द्वारा विरचित
पुस्तिका “खोई हरी टेकरी” इसी अवधारणा को पुष्ट करती है |पर्यावरण के
प्रति समाज का उदासीन व्यवहार ,उस पर चिंतन को विवश करते साथ ही समाधान प्रस्तुत
करते हाइकु वास्तव में ऐसे अमृत बिंदु हैं जो संवेदन हीन, मृत प्राय समाज में जीवन
का संचरण करने में पूर्णत : समर्थ हैं | कवयित्री के अनुसार , “मानव बचपन में जिस
परिवेश में रहता है ,उसका द्विपक्षीय प्रभाव आगामी जीवन पर पड़ता है –यदि परिवेश
सुखद है ,रमणीय है तो शैशव के उस परिवेश से सदा लगाव रहता है और इसके विपरीत यदि
परिस्थितियाँ और वातावरण दुःख बोझिल है तो उससे आगामी जीवन भर घृणा ,वितृष्णा ,विरक्ति
जैसे नकारात्मक भाव बने रहना अनिवार्य है |” हमारे आज के चिंतन और कर्म पर ही
हमारा कल निर्भर करता है |यही कारण है कि कवयित्री पहले ही हाइकु से समाज को पर्यावरण
के प्रति सचेत करती दृष्टिगोचर होती हैं क्योंकि वह जानती है ....
चेत मानव \फल फूल छाया है \पेड़ों की
माया |
पौधे हैं साँस \ हरियाली है प्राण \ जीवित धरा |
पृथिवी तरु देवता की आभारी है |ये वृक्ष देवता आश्रय देते है ,भोजन भी
जुटाते हैं |पंछियों की निर्द्वन्द्व बस्तियां सुख पूर्वक इनपर बसी हैं | पंछी भी
तरुओं के प्रेम का पूरा ऋण चुकाते हैं |वे मधुर लोरियां गा पेड़ों को सुला देते हैं
तो भोर बेला में मीठी प्रभाती गा के जगाते भी हैं |प्रकृति के परस्पर प्रेम पूर्ण
व्यवहार की अद्भुत अनुभूति है |निसर्ग पुत्री ने हरी भरी पुष्पान्विता धरा को सुवसना
युवती के रूप में देखा ...उसे वह जादुई छड़ी लिए परी सी दिखती है परन्तु और
सौन्दर्य में विचरण करती कवयित्री की दृष्टि से समाज कल्याण कभी ओझल नहीं होता
.........
हरा लहँगा \फूलों कढी ओढ़नी \सजी है धरा |
प्रकृति परी \ कहाँ पाई तूने ये \ जादू की छड़ी |
तरु चिकित्सा \पर्यावरण शुभ \हरीतिमा भी |
...वहीं दूसरी ओर...जादुई छड़ी लिए परी सी दिखती आज वृक्ष विहीन होती
हुई ऋतम्भरा धरा लज्जावनत सी दिखाई देती है |आज का मानव ऐसा कपूत है जो
स्वयं माँ के सम्मान का भक्षक है |धरा कटे पेड़ों को देख सोग मनाती है..
कटे जो पेड़ \ विवस्त्रा है वसुधा \ लाज से गड़ी|
कटे पेड़ हैं \ ‘सोग’ मनाती धरा \ बेटों की लाशें |
विकास के भ्रम में हरियाली का विनाश करता मानव ऋषि मुनि जैसे वृक्षों
के शाप का अधिकारी तथा स्वयं के ही विनाश का कारण बन जाता है ..
मानव बना \प्रकृति का दुश्मन \स्वयं का विनाश |
प्रकृति के कोप से वायु दूषित हो रोगिणी हो गई है ,चिड़ियों का दम
घुटता है और वो गीत भूल गई हैं |शरद पूनो भी गर्द की मारी पीली पड़ गई है ...
शरद
पूनो \पीली पड़ी बेचारी \गर्द की मारी |फिर मनुष्य का तो कहना ही क्या ??
मेघ रूठ गए हैं , नदी सूख गई है और कूप बावड़ी भी खाली हैं फिर भी
बेसुध मानव व्यवहार पर कवयित्री की पैनी दृष्टि है....सड़को पर \सार्वजनिक नल \खुले
पड़े हैं ...और वह कह उठती हैं ...
साक्षात काल \पानी की बरबादी \ इसे बचाओ |
शांत
प्रकृति के मधुर संगीत में रमी कवयित्री की प्रवृत्ति को आज का शोर भरा संगीत
संगीत नहीं लगता ...
आज का मीत \कान फाड़ संगीत \कल का यम |
आज वर्षा की प्रथम फुहार पर सौंधी सौंधी गंध नहीं आती ......
वर्षा
फुहार \खोई महक जो थी \प्राणदायिनी |
मौसम के अप्रत्याशित व्यवहार के लिए भी स्वयं मानव व्यवहार एवं आकाशीय
प्रदूषण को उत्तरदाई मानती हैं ....
बदल डाले \ग्रीष्म शीत मानक \सूर्य कोप ने
|....और चेताती हैं .....
कब चेतोगे \करो रफू चादर \ओजोन पर्त|
...
अंत में ..गौरैया ,मोनाल कस्तूरी मृग और यायावर सारस को खोजती
कवयित्री गा उठती हैं मधुर रस सिक्त जंगल का गीत .....
स्वाधीन मुक्त \सदा मस्ती में डूबा \सबका मीत |
आत्म विभोर \प्रभु-भक्ति में लीन \सबसे प्रीत |...तथा ...
मनमौजी है
\जंगल को गाने दो \ अपना गीत |...
उनकी सशक्त कलम सहृदयों को वहाँ पहुँचा देती
है कि जहाँ उन्हें होना चाहिए था |
किम् अधिकम् .....पेड़-पौधों ,जल ,वायु ,ध्वनि और मिट्टी के
प्रति मानव के संवेदनहीन व्यवहार को देख कवयित्री मानव मन की
मूढ़ता और निष्ठुरता से आहत धरा की व्यथा को , व्याकुलता को सच ही अभिव्यक्त करती
है ......
खोजती फिरे \ खोई हरी टेकरी \ गूंगी धरती
|
...
ऐसे समय में सहृदयों के लिए “खोई हरी टेकरी” को पढ़ना तप्त मरुभूमि में ऐसी हरी टेकरी को पा
लेना है जो अपने सुन्दर ,सुगन्धित पुष्पों से उनके मन और हिंदी-हाइकु-उपवन को सदा
सुवासित करती रहेगी |
बहुत शुभ कामनाओं के साथ ...
सादर
ज्योत्स्ना शर्मा
०७-0१-१४