डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
वंदन-अभिनन्दन शरद !
वंदन-अभिनन्दन शरद ! स्नान-पर्व में सद्यस्नाता , धुली-निखरी
प्रकृति को निहारते तुम आ ही गए | लो विराजो ! उसने तुम्हारे स्वागत में धवल-कषाय
हरसिंगार के फूलों का आसन बिछा दिया है | बरखा के मुक्ताहार से गिरे जिन मोतियों
को समेटकर मार्ग के दोनों ओर भर दिया था , उन्हीं से झाँकती रातभर जागी
कुमुदिनियाँ स्वागत-गीत गा-गाकर थक गई हैं और निद्रोत्सव
मनाकर उठे प्रफुल्लित कमल मुस्कुरा रहे हैं | हरी-हरी टेकरियों पर सजे-धजे वृक्ष पवन
और पत्तियों की ताल पर झूम रहे हैं , मानो तुम्हारे आगमन का उत्सव मना रहे हों |
पके धान की स्वर्णाभ बालियाँ लोक-कल्याणार्थ सर्वस्व त्याग को तत्पर हैं | निर्मल
आकाश में दौड़-धूप करते धौले बादल न जाने किस व्यवस्था में लगे हैं | कभी कहीं
छिड़काव करते हैं तो कभी जल से सेवल करते हैं | यूँ ही तो नहीं महाकवि वाल्मीकि ,
कालिदास ने तुम्हें अपनी कविताओं में उतार दिया | तुलसी दास भी तुम्हारी मनोहर छटा
पर मुग्ध हैं – ‘बरषा बिगत सरद रितु आई , लछिमन देखहूँ परम सुहाई’ |
हे उत्सवधर्मी ! तुम्हारा आगमन स्वयं एक उत्सव है | तुम्हारे
आने की आहट से ही मेरे भारत की माटी का कण-कण पुलकित हो उठता है | समाज को
परम्पराओं से जोड़ते हुए तुम कितनी चतुरता से समरसता का संचार करते हो | तिलक
द्वारा प्रारम्भ किए गणेशोत्सव में उमड़े जन-ज्वार के आरती , संध्या-वंदन से गुंजित
गगन धूप-दीप से सुवासित हो जाता है | गरबे की धुन पर थिरकते पाँव और रामलीलाओं में
गूँजती चौपाइयाँ वाले गाँव तुम्हारे सामाजिक प्रबंधन-चातुर्य को कहते हैं | ‘विजय-पर्व’
में दशानन की पराजय अहंकार-अत्याचार पर सरलता, सौम्यता और सदाचार की
विजय का घोष है |
प्रिय शरद ! पितरों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते तुम
आराधना भरे भावों के वाहक हो ! वासना से दूर विशुद्ध उपासना ,प्रेम और सौहार्द के
पोषक ! शारदीय नवरात्रों में धरा पर साक्षात देवी दुर्गा का जागरण-अवतरण होता है ,निश्चय
ही स्त्री-शक्ति का पुण्य-स्मरण ! तुम्हारा ही प्रताप है कि पीयूषवर्षी चन्द्र धरा
को क्षीरसागर बना देता है | ‘कोजागरी’ देवी लक्ष्मी की अभ्यर्थना के साथ-साथ गर्वोन्मत्त
कन्दर्प के मान-मर्दन का पर्व भी है | हे रसवर्षी सखा ! अद्भुत है तुम्हारा समरसता
का व्यवहार ! न पंखे की चिंता न कम्बल की पुकार , धन्य हो तुम ! धन्य है तुम्हारा
सर्वहारा से प्यार !
डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा