Saturday, 29 September 2018

137-वंदन अभिनन्दन शरद !


डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा 

वंदन-अभिनन्दन शरद !
वंदन-अभिनन्दन शरद ! स्नान-पर्व में सद्यस्नाता , धुली-निखरी प्रकृति को निहारते तुम आ ही गए | लो विराजो ! उसने तुम्हारे स्वागत में धवल-कषाय हरसिंगार के फूलों का आसन बिछा दिया है | बरखा के मुक्ताहार से गिरे जिन मोतियों को समेटकर मार्ग के दोनों ओर भर दिया था , उन्हीं से झाँकती रातभर जागी कुमुदिनियाँ स्वागत-गीत गा-गाकर थक गई हैं और निद्रोत्सव मनाकर उठे प्रफुल्लित कमल मुस्कुरा रहे हैं | हरी-हरी टेकरियों पर सजे-धजे वृक्ष पवन और पत्तियों की ताल पर झूम रहे हैं , मानो तुम्हारे आगमन का उत्सव मना रहे हों | पके धान की स्वर्णाभ बालियाँ लोक-कल्याणार्थ सर्वस्व त्याग को तत्पर हैं | निर्मल आकाश में दौड़-धूप करते धौले बादल न जाने किस व्यवस्था में लगे हैं | कभी कहीं छिड़काव करते हैं तो कभी जल से सेवल करते हैं | यूँ ही तो नहीं महाकवि वाल्मीकि , कालिदास ने तुम्हें अपनी कविताओं में उतार दिया | तुलसी दास भी तुम्हारी मनोहर छटा पर मुग्ध हैं – ‘बरषा बिगत सरद रितु आई , लछिमन देखहूँ परम सुहाई’ |
हे उत्सवधर्मी ! तुम्हारा आगमन स्वयं एक उत्सव है | तुम्हारे आने की आहट से ही मेरे भारत की माटी का कण-कण पुलकित हो उठता है | समाज को परम्पराओं से जोड़ते हुए तुम कितनी चतुरता से समरसता का संचार करते हो | तिलक द्वारा प्रारम्भ किए गणेशोत्सव में उमड़े जन-ज्वार के आरती , संध्या-वंदन से गुंजित गगन धूप-दीप से सुवासित हो जाता है | गरबे की धुन पर थिरकते पाँव और रामलीलाओं में गूँजती चौपाइयाँ वाले गाँव तुम्हारे सामाजिक प्रबंधन-चातुर्य को कहते हैं | ‘विजय-पर्व’ में दशानन की पराजय अहंकार-अत्याचार पर सरलता, सौम्यता और सदाचार की विजय का घोष है |
प्रिय शरद ! पितरों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते तुम आराधना भरे भावों के वाहक हो ! वासना से दूर विशुद्ध उपासना ,प्रेम और सौहार्द के पोषक ! शारदीय नवरात्रों में धरा पर साक्षात देवी दुर्गा का जागरण-अवतरण होता है ,निश्चय ही स्त्री-शक्ति का पुण्य-स्मरण ! तुम्हारा ही प्रताप है कि पीयूषवर्षी चन्द्र धरा को क्षीरसागर बना देता है | ‘कोजागरी’ देवी लक्ष्मी की अभ्यर्थना के साथ-साथ गर्वोन्मत्त कन्दर्प के मान-मर्दन का पर्व भी है | हे रसवर्षी सखा ! अद्भुत है तुम्हारा समरसता का व्यवहार ! न पंखे की चिंता न कम्बल की पुकार , धन्य हो तुम ! धन्य है तुम्हारा सर्वहारा से प्यार !
डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा




Wednesday, 26 September 2018

136-थिरकते पुरवाई के पाँव !

डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
शृंगार छंद

चरण के प्रारम्भ में 3-2 मात्राओं के क्रम के साथ 16-16 मात्राओं के चार चरण ,दो-दो चरणों के तुक मिलते हैं , तुकांत में गुरु लघु (2-1)मात्राओं का क्रम होता है | 

झूमती गाती आई भोर
दिवस लो होने लगा किशोर
थिरकते पुरवाई  के पाँव
तृप्त हों तृष्णाओं के गाँव ।।

मिले जब मन से मन का मीत
मौन में मुखरित हो संगीत
अधर पर सजे मधुर मुस्कान
हुई फिर खुशियों से पहचान ।।

जले जब नयनों के दो दीप
लगी फिर मंज़िल बहुत समीप
अँधेरों ने भी मानी हार
किया है स्वप्नों का शृंगार ।।

थामकर हम हाथों में हाथ
चलेंगे जनम-जनम तक साथ
राह में मिलने तो हैं मोड़
कहीं मत जाना मुझको छोड़ ।।
           -०-०-०-०-